देव और राक्षस संस्कृति में त्रिजटा का अवदान
सत्येन्द्र कुमार पाठक
राक्षस संस्कृति के पोषक राक्षस राज रावण के छोटे भाई विभीषण की पुत्री त्रिजटा का चरित्र, श्री रामचरितमानस में, राक्षस और देव संस्कृतियों के बीच एक अद्वितीय सेतु का काम करता है। वह मात्र एक पात्र नहीं, बल्कि इन दो विरोधी धाराओं के संगम पर खड़ी एक ऐसी शख्सियत हैं जो दोनों के गुणों और सीमाओं को दर्शाती हैं। त्रिजटा का जन्म रावण जैसे प्रकांड लेकिन अहंकारी राजा के भाई विभीषण के घर हुआ था। उनका परिवेश घोर राक्षस संस्कृति का था, जहाँ बल, अहंकार, अधर्म, भोग-विलास और ईश्वर-विरोध की प्रधानता थी। रावण स्वयं इसका प्रतीक था, जिसने पराई स्त्री का हरण कर और छल-कपट का सहारा लेकर इस संस्कृति की चरम सीमा को दर्शाया। इस राक्षस संस्कृति के बीच त्रिजटा की भूमिका बिल्कुल विपरीत थी, जिससे उनका अद्वितीय अवदान स्पष्ट होता है: नैतिक अपवाद और दया का प्रतीक: राक्षस कुल में जन्मी होने के बावजूद, त्रिजटा राक्षसत्व से पूर्णतः मुक्त थीं। जब अन्य राक्षसियाँ सीता जी को डराती-धमकाती थीं, तब त्रिजटा ने उनके प्रति गहरी सहानुभूति और दया दिखाई। उनका यह व्यवहार उस क्रूर और अधर्मी परिवेश में एक नैतिक अपवाद था। उन्होंने सीता जी की पीड़ा को समझा और अपनी मानवीय संवेदनाओं को प्राथमिकता दी, जो राक्षस संस्कृति में दुर्लभ थी। विवेकपूर्ण प्रतिरोध और व्यवहार-कुशलता: त्रिजटा ने सीधे तौर पर रावण या अन्य राक्षसियों का विरोध नहीं किया, क्योंकि इससे उनकी अपनी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती थी। इसके बजाय, उन्होंने विवेकपूर्ण युक्तियों का सहारा लिया। उनका स्वप्न सुनाना, जिसमें लंका दहन और रावण के विनाश की भविष्यवाणी थी, एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक चाल थी। इस चाल से उन्होंने राक्षसियों को भयभीत किया और अप्रत्यक्ष रूप से सीता जी के प्रति सम्मान और सेवा भाव अपनाने के लिए प्रेरित किया। यह उनकी व्यवहार-कुशलता का ही परिणाम था कि वे राजकोप से बचते हुए, सीता जी को संरक्षण दे पाईं और राक्षसों के बीच रहते हुए भी धर्म का पालन किया । सीता जी की प्राणरक्षिका और मानसिक संबल: लंका में सीता जी के लिए वह एकमात्र शुभचिंतक और रक्षक थीं। जब सीता जी विरह में व्याकुल होकर आत्मदाह का विचार करने लगीं, तब त्रिजटा ने उन्हें अग्नि देने से मना कर उनके प्राणों की रक्षा की। उन्होंने सीता जी को रामकथा सुनाकर और भविष्य की विजय का विश्वास दिलाकर मानसिक संबल प्रदान किया। यह अवदान राक्षस संस्कृति के भीतर रहते हुए किसी पराई स्त्री के प्रति निस्वार्थ सेवा और करुणा का सर्वोच्च उदाहरण है।
देव संस्कृति के मूल में धर्म, न्याय, सत्य, भक्ति और परोपकार जैसे मूल्य थे। इस संस्कृति के प्रमुख तत्व ईश्वर में अटूट विश्वास, धर्मपरायणता, परोपकार और त्याग थे। त्रिजटा, भले ही राक्षस कुल में जन्मी थीं, अपने गुणों के कारण देव संस्कृति के मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती थीं और इस संस्कृति में उनका अवदान भी महत्वपूर्ण है:राम-भक्ति का आदर्श: त्रिजटा की श्री राम के चरणों में अटूट रति उन्हें देव संस्कृति के सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ से जोड़ती है। राम स्वयं धर्म और न्याय के अवतार हैं, और उनकी भक्ति देवत्व का सबसे बड़ा प्रमाण है। राक्षसी होते हुए भी उनकी यह भक्ति, उस समय की देव संस्कृति के लिए एक प्रेरणा स्रोत बनी कि भक्ति किसी कुल या जाति तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह हृदय का विषय है।ज्ञान और विवेक का प्रतीक: संतों के अनुसार, उनके सिर पर ज्ञान, भक्ति और वैराग्य रूपी तीन जटाएँ थीं, जो उन्हें देव संस्कृति के ज्ञान और आध्यात्मिक गहराई से जोड़ती हैं। उनका विवेक, सत्य को पहचानने और उस पर अडिग रहने की उनकी क्षमता, देवों के समान थी। उन्होंने भविष्य के सत्य (रावण का विनाश और राम की विजय) को पहचाना और उसे सीता जी तक पहुँचाया, जिससे देवों के पक्ष को बल मिला।परोपकार और कर्तव्यनिष्ठा: सीता जी के प्रति उनकी करुणा और निस्वार्थ सेवा, देव संस्कृति के परोपकारी स्वभाव को दर्शाती है। उन्होंने बिना किसी निजी लाभ के, केवल कर्तव्य और दया भाव से सीता जी की सहायता की। यह अवदान यह स्थापित करता है कि देवत्व केवल स्वर्ग में रहने वालों में ही नहीं, बल्कि उन सभी में है जो धर्म और परोपकार के मार्ग पर चलते हैं।संस्कृति के मेल का प्रतीक: त्रिजटा का चरित्र यह दर्शाता है कि आंतरिक गुण बाहरी पहचान से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। वह राक्षस कुल में जन्म लेकर भी देवत्व के गुणों को धारण करती हैं, यह सिद्ध करते हुए कि आध्यात्मिक मूल्य और भक्ति किसी भी सामाजिक या जैविक सीमा से परे हैं। वह देवों और मनुष्यों को यह संदेश देती हैं कि धर्म और सत्य को किसी भी परिवेश में अपनाया जा सकता है।
त्रिजटा का चरित्र राक्षस और देव दोनों संस्कृतियों के लिए एक अमूल्य अवदान है। राक्षस संस्कृति के लिए, वह एक दुर्लभ अपवाद थीं जिसने दिखाया कि उस अंधकार में भी नैतिकता और दया जीवित रह सकती है। देव संस्कृति के लिए, वह इस बात का प्रमाण थीं कि भक्ति और धर्म किसी भी कुल या जाति तक सीमित नहीं हैं, और देवत्व आंतरिक गुणों में निहित है। वह दोनों संस्कृतियों के बीच एक सेतु बनीं, जिससे यह सिद्ध हुआ कि विपरीत परिस्थितियों में भी धर्म, भक्ति और विवेक को बनाए रखा जा सकता है।
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