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रोहित मिश्रा केस में ‘ह्यूमन राइट्स डिफेंडर’ की दखल और सिस्टम की असंवेदनशीलता"

रोहित मिश्रा केस में ‘ह्यूमन राइट्स डिफेंडर’ की दखल और सिस्टम की असंवेदनशीलता"

दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |

हमारा समाज महिलाओं के प्रति हिंसा और उत्पीड़न के मामलों पर तेजी से प्रतिक्रिया करता है, जो कि सराहनीय है। परंतु, जब एक पुरुष अपने वैवाहिक जीवन में मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक उत्पीड़न का शिकार होता है, तब उसका पक्ष सुनने वाला कोई नहीं होता। ऐसा ही मामला दिल्ली निवासी रोहित मिश्रा का है, जिसने अपनी पत्नी ट्विंकल कुमारी और उसके परिजनों पर मानसिक उत्पीड़न, झूठे केस में फंसाने की धमकी, और संभावित जानलेवा साजिश रचने का आरोप लगाया है।
इस पूरे घटनाक्रम में ‘ह्यूमन राइट्स डिफेंडर’ संस्था ने जब हस्तक्षेप किया, तब मामला और भी जटिल हो गया। यह न सिर्फ एक पारिवारिक विवाद है, बल्कि यह कानूनी तंत्र की असंवेदनशीलता और मानवाधिकार संस्थाओं की चुनौतियों की कहानी भी है।

रोहित मिश्रा, एक साधारण नौकरीपेशा व्यक्ति हैं, जिनका विवाह 6 दिसंबर 2024 को ट्विंकल कुमारी से हुआ। प्रारंभिक दिनों में सब कुछ सामान्य था, लेकिन विवाह के कुछ ही महीनों में परिस्थितियां बिगड़ने लगी। रोहित के अनुसार, ट्विंकल और उसके परिवार वाले उस पर लगातार मानसिक दबाव डालते रहे, उसकी आर्थिक स्थिति का मजाक उड़ाया गया, और झूठे आरोपों से उसे फंसाने की धमकियां दी जाती रही।
रोहित ने अपने स्तर पर कई बार समझौते और संवाद की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी। परेशान होकर उसने ‘ह्यूमन राइट्स डिफेंडर’ नामक संस्था से संपर्क किया और अपनी पीड़ा साझा की।

सोमवार को ‘ह्यूमन राइट्स डिफेंडर’ की टीम रोहित और उसके परिजनों के साथ पटना के बालूघाट स्थित ट्विंकल कुमारी के घर पहुंची, ताकि मामले को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाया जा सके।

इस टीम में शामिल थे पूजा सिन्हा (संस्थापक सह राष्ट्रीय महासचिव), आशा देवी (सह-संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष - एससी/एसटी विंग), राजेन्द्र कुमार सिन्हा (राष्ट्रीय अध्यक्ष), किरण (राष्ट्रीय सहायक सचिव) सरिता देवी (राष्ट्रीय सतर्कता सदस्य) और पिंकी कुमारी (सक्रिय सदस्य)।

टीम का उद्देश्य था कि दोनों पक्षों के बीच संवाद स्थापित कर कोई सहमति बनाई जा सके, जिससे अदालत और थाने का चक्कर लगाने से बचा जा सके।
ह्यूमन राइट्स डिफेंडर की टीम के अनुसार, जब वे महिला थाना गए और वहां के अधिकारियों से सहयोग की अपील की, वहां सहयोग मिला, लेकिन
सिकंदरापुर थाना में उन्हें न सिर्फ उपेक्षित व्यवहार का सामना करना पड़ा, बल्कि थाने ने उल्टे पीड़ित पक्ष को ही दहेज प्रताड़ना के झूठे केस में फंसाने की धमकी दी।

यहां तक कि थाने में मौजूद अधिकारियों ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी डराने-धमकाने की कोशिश की और कहा कि यदि वे ज्यादा दखल देंगे, तो उन्हें भी केस में फंसा दिया जाएगा।
यह स्थिति साफ तौर पर दर्शाती है कि कानून का संचालन करने वाली संस्थाएं जब पक्षपाती हो जाती हैं, तो पीड़ित को न्याय मिलना लगभग असंभव हो जाता है।


ह्यूमन राइट्स डिफेंडर की टीम जब ट्विंकल के घर पहुंची, ट्विंकल की पूरी इज्जत के साथ टीम को घर के अंदर ले गई और बैठाई। लेकिन ट्विंकल के भाई कार्तिक ने आक्रोशित होकर टीम को घर के अंदर से बाहर नहीं निकलने देने के उद्देश्य से रोकने की कोशिश की और मेन गेट में ताला लगाने का प्रयास किया। यह भी एक खतरनाक संकेत था कि लड़की पक्ष संवाद की जगह टकराव का रास्ता चुन रहा है।


संस्था की टीम ने संयम बनाए रखा और उग्रता का जवाब शांतिपूर्वक प्रयासों से दिया, जिससे स्थिति और बिगड़ने से बच गई।


हमारे समाज में जब भी महिला उत्पीड़न की बात होती है, तुरंत सारे तंत्र हरकत में आ जाते हैं। लेकिन जब कोई पुरुष उत्पीड़न का शिकार होता है, तो अक्सर उसका मजाक उड़ाया जाता है, उसे कमजोर और झूठा समझा जाता है।
रोहित मिश्रा जैसे हजारों पुरुष हैं जो मानसिक, सामाजिक और कानूनी उत्पीड़न का शिकार होते हैं, लेकिन कोई उनकी बात नहीं सुनता। जो संस्थाएं उनके पक्ष में खड़ी होती हैं, उन्हें भी थाने, कोर्ट और समाज के तानों का सामना करना पड़ता है।


भारतीय दंड संहिता में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कई कड़े कानून हैं, जैसे- धारा 498A (दहेज प्रताड़ना), घरेलू हिंसा अधिनियम, और कई विशेष प्रावधान। ये कानून निस्संदेह जरूरी हैं, लेकिन इनका दुरुपयोग भी अब एक गंभीर समस्या बनता जा रहा है।


रोहित जैसे मामले इस ओर संकेत करता है कि पुरुषों के लिए कोई विशेष कानूनी सुरक्षा नहीं है, और जब उन्हें झूठे केसों में फंसाया जाता है, तो उन्हें अपने बचाव में वर्षों बर्बाद करने पड़ते हैं।


‘ह्यूमन राइट्स डिफेंडर’ जैसी संस्थाएं आज पुरुषों के लिए एकमात्र सहारा बनती जा रही हैं। वे न केवल कानूनी सलाह देती हैं बल्कि मैदानी संघर्ष में भी साथ देती हैं। लेकिन इन संस्थाओं को भी प्रशासनिक तंत्र से टकराव का सामना करना पड़ता है।


मुजफ्फरपुर स्थित बालूघाट की घटना इस बात का प्रमाण है कि यदि कोई संस्था निष्पक्ष और निःस्वार्थ प्रयास करती है, तो उसे भी धमकियों और मुकदमों का भय दिखाया जाता है।


झूठे केसों की जांच का तंत्र मजबूत होना चाहिए। पुरुषों के लिए हेल्पलाइन और संरक्षण कानून बनाए जाना चाहिए। मानवाधिकार संस्थाओं को कानूनी मान्यता और संरक्षण मिलेना चाहिए। पुलिस और प्रशासन में लैंगिक संतुलन लाया जाना चाहिए। गंभीर मामलों में महिला और पुरुष दोनों पक्ष की स्वतंत्र जांच होना चाहिए।
रोहित मिश्रा की कहानी केवल एक व्यक्ति की नहीं है, बल्कि उस पूरे वर्ग की आवाज है जो आज सामाजिक, मानसिक और कानूनी उत्पीड़न से गुजर रहा है लेकिन उसे पीड़ित मानने को कोई तैयार नहीं। ‘ह्यूमन राइट्स डिफेंडर’ की पहल ने इस मामले को उजागर किया है, लेकिन क्या समाज, प्रशासन और न्यायपालिका वास्तविक न्याय के लिए आगे आएंगे? यदि इस तरह के मामलों को गंभीरता से नहीं लिया गया, तो आने वाले समय में झूठे मुकदमे, रिश्तों में विश्वास की कमी और कानून का दुरुपयोग एक खतरनाक सामाजिक समस्या बन जाएगा। ————————
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