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गुरुपूर्णिमा

गुरुपूर्णिमा

जय प्रकाश कुवंर
हर साल आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा मनाया जाता है। इस साल सन् २०२५ में यह तिथि गुरुवार को पड़ने से यह दिन और भी शुभ हो गया है। वास्तव में अज्ञान को हटाकर प्रकाश में ले जाने वाले को गुरु कहा जाता है। इसलिए भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान अत्यंत उंच्चा और पूजनीय माना गया है।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वर:
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:
एक जगह कबीर दास जी ने भी लिखा है :-
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।
भगवान शिव ने गुरुपूर्णिमा के दिन ही सप्तर्षियों या अपने सात अनुयायियों को ज्ञान प्रदान किया था। इस कारण भगवान शिव को गुरु भी कहा जाता है और यह दिन उनके और उनकी शिक्षाओं के सम्मान में मनाया जाता है।
गुरुपूर्णिमा के दिन ही महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, जिन्हें सभी गुरुओं का गुरु माना जाता है।
प्राचीन काल में गुरुकुल परंपरा से लेकर वर्तमान में आधुनिक शिक्षा प्रणाली तक में गुरु का स्थान वही है, जो शुरू में था। अतः गुरुपूर्णिमा के दिन गुरु पूजन का विधान है।
प्राचीन काल में गुरुकुल में विद्यार्थी आश्रम में गुरु के साथ रहकर विद्याध्ययन करते थे। यहाँ विद्यार्थी गुरु के निर्देशों का पूर्णतः पालन करते थे। कृष्ण और सुदामा ने भी अपने गुरु संदीपन ऋषि के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन किया था। आश्रम में रहते हुए दोनों ने गुरुमाता के आदेश पर जंगल से लकड़ी भी तोड़कर लाने का काम भी किया था।
गुरुकुल परंपरा में एक और कहानी शिष्य आरुणि की आती है, जो गुरु भक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। आरुणि महर्षि आयोदधौम्य के शिष्य थे। एक बार वर्षा ऋतु में उनके गुरु महर्षि आयोदधौम्य ने आरुणि को खेत में मेंड़ बांधने के लिए भेजा। जब आरुणि खेत में पहुंचे तो उन्होंने देखा कि पानी के तेज बहाव के कारण खेत की मेंड़ टूट गई है। आरुणि ने टूटे हुए मेंड़ को बांधने की बहुत कोशिश की। लेकिन वो असफल रहे। अंत में उन्होंने खुद को मेंड़ पर लिटाकर पानी का बहाव रोकने का निर्णय लिया। रात भर वो मेंड़ पर लेटकर पानी को रोके रहे और खुद ठिठुरते रहे। सुबह जब गुरुजी उसे ढूढ़ने आये तो उन्होंने आरुणि को मेंड़ पर मुर्छित पाया। गुरुजी ने आरुणि को वहाँ से उठाया और उसका उपचार किया। इस घटना से गुरुजी आरुणि की गुरुभक्ति से बहुत प्रसन्न हुए और आरुणि को बहुत आशीर्वाद दिया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु न केवल विषय का ज्ञान कराते हैं, बल्कि वे चरित्र निर्माण, नैतिकता, अनुशासन और आदर्शों का समाज में बीज रोपण भी करते हैं। आज के समय में भी गुरु अथवा शिक्षक समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
अतः कहा जा सकता है कि गरुपूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं बल्कि शिष्यों का अपने गुरुओं के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है। 
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