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सावन का सावन पुड़िया

सावन का सावन पुड़िया

डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
मित्रों! फागुन और सावन दो ही ऋतु ऐसे हैं जिनमें माधुर्य और प्रेम की तरलता रहती है। विशेष रूप से नव विवाहित दंपतियों के लिए।
इसीलिए वसंत को मधुऋतु और सावन को मधुश्रावण कहा जाता है ।
मैं मगधवासी अर्थात् विशुद्ध मगहिया हूं। रीति रिवाज,खान पान , रहन सहन , विधि विधान का मगहिया प्रभाव अक्षुण्ण रहना स्वाभाविक है।
हमारी प्राचीन परंपरा के अनुसार वैशाख या ज्येष्ठ माह में शादियां होती थी और नव विवाहिताएं अधिकतम 15-20 दिन ससुराल में रहकर मैके चली जाती है। पहले दूरागमन 1 या 3 वर्ष के बाद ही हुआ करता था हालांकि अब यह परंपरा समाप्त हो चला है। हो सकता है कि वर्तमान परिपेक्ष में कहानी इससे भिन्न हो क्योंकि, बहुत सारी परंपराओं को लोग समाप्त करते जा रहे हैं । खैर मैं अपने जमाने की बात कर रहा हूं। कहने का अभिप्राय है कि सावन माह में नव विवाहिता प्रायः मायके में ही रहती है।
उन दिनों मोबाइल का जमाना तो था नहीं चिट्ठियों का जमाना था प्रेम वार्ता का एकमात्र साधन लिफाफा हुआ करता था या फिर अनउपलब्ध रहने पर अंतर्देशीय पत्र से काम चल जाता था। पोस्टकार्ड सिर्फ सार्वजनिक सूचना देने का मध्यम हुआ करता था। मैं बातें सावन मास का कर रहा हूं । सावन के प्रथम सप्ताह में ससुराल से साली, सास/सरहज और पत्नी का दो-तीन चिट्ठियां डाक से प्राप्त होती थी । जिसमें सावन में दामाद बाबू/ जीजा जी/ स्वामी को जरूर से जरूर आने का आग्रह किया गया होता था । उस काल खंड में बिना माता पिता की अनुमति के किसी भी बहाने ससुराल जाने की बिल्कुल भी अनुमति नहीं मिलती थी। सावन ही एक मात्र बहाना होता था। लोग मन ही मन सावन आने का इंतजार किया करते थे।
परंपरानुसार सावन माह में ससुराल से नव विवाहिता के लिए वस्त्रादि,पकवान, हरी चूड़ियां आदि भेजे जाते हैं । इसमें लड़के पक्ष की पारिवारिक संयोजन में मां की भूमिका सावन पुड़िया भेजने में अहम होती थी ।
(सावन) पुड़िया का मतलब सिंदूर की पुड़िया से है। इस सावन पुड़िया के बहाने सास यह संदेश देती है कि वो पुत्रवधू का कितना सम्मान करती है और परिवार का हैसियत क्या है । सावन पुड़िया का सामान इतना वजनी होता था कि इसे ले जाने के लिए एक या दो बेगार साथ जाता था ।
इस परंपरा से पुत्रवधू का मायका यह समझता है कि उनकी पुत्री ने ससुराल में अपना कितना सम्मान पाया है। तब की अधिकांश शादियां पिता की हैसियत और परिवार की प्रतिष्ठा देखकर ही हुआ करती थी। लड़कियां यह नहीं कह सकती थी कि उसे रसोई बनाना नहीं आता है । लड़कियों के बारे में यह पूछा जाता था कि सिलाई, बुनाई और रसोई का काम जानती है या नहीं। लड़कियों को गृह कार्य में निपुण होना अनिवार्य था।
तय तिथि/तारीख को साले ससुर सहित तमाम गोतिया के पुरुष वर्ग दालान पर और सास सरहज साली सहित तमाम स्त्रियां घर के अंदर इंतजार कर रहे होते थे।
किसी तरह से लड़के बेगार के साथ ससुराल पहुंच जाता था। बेगार दालान पर और मेहमान बाबू घर के अंदर। स्वागत इस कदर मानो देवलोक से कोई देवदूत आया है। स्वागत में साली सरहज एक पैर पर खड़ी दिखाती किन्तु मेहमान बाबू (लड़के) की निगाहें किसी और का इंतजार कर रही होती थी। एक झलक पाना भी मुश्किल होता था । इत्मीनान बस इतना ही होता था कि जल्द रात का अंधेरा हो । लालटेन की मद्धिम रोशनी ही मुलाकात का मार्ग प्रशस्त करेगा ।
तब के वक्त में सावन में सावन पुड़िया का ट्रिप ही पति - पत्नी फनीसावन (हनीमून) ट्रिप होता था। फनीसावन ही आज के समय में हनीमून में रूपांतरित गया है। हनीमून का शाब्दिक अर्थ है विवाहोपरांत पति–पत्नी का आनंद विलास या प्रमोदकाल।
बेगार का भी खूब सम्मान किया जाता था। दूसरे तीसरे दिन जब बेगार घर लौटने का आग्रह करता तो उनके लिए पीली धोती , गंजी , गमछा और कुछ रुपए दे कर विदा कर दिया जाता था।
निकम्मे मेहमान बाबू का 8-10 दिन का समय कैसे निकल जाता उसे तो पता ही नहीं चलता। अगर मेहमान बाबू घर लौटने का आग्रह भी करते तो कभी साली तो कभी सरहज रोक लेती, अंत में रोकने के लिए सासु मां तो कह ही देतीं की लगता है कि आप हमको मां नहीं समझते। बेचारा मेहमान बाबू । सुखद वातावरण में मधुश्रावण (हनीश्रावण) / हनीमून का वास्तविक आनंद लिया करते। शायद आज का हनीमून में उतना आनंद नहीं है।
प्रस्तुति
डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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