"परिवर्तन का सत्य"
यह विचार केवल विकास एवं परिवर्तन की अनिवार्यता पर नहीं, अपितु चेतना की गतिशीलता पर भी प्रकाश डालता है।
साँप जब अपनी पुरानी केंचुल छोड़ता है, तब वह वास्तव में स्वयं को नवीनीकृत करता है। यह केंचुल त्याग केवल एक शारीरिक प्रक्रिया नहीं, अपितु प्रकृति का यह संदेश है कि जीवित रहने के लिए हमें समय-समय पर स्वयं को परिवर्तित करना होता है। यह परिवर्तन विकास की सीढ़ी है।
इसी तरह मानव मस्तिष्क भी यदि अपनी मान्यताओं, धारणाओं एवं विचारों को समयानुसार परिष्कृत न करे, तो वह जड़ता का शिकार हो जाता है। जड़ मस्तिष्क विचारशील नहीं होता, केवल प्रतिध्वनियाँ दोहराता है। उसकी ऊर्जा, उसकी जिज्ञासा, उसकी चेतना शनैः शनैः लुप्त हो जाती है। वह मस्तिष्क नहीं, केवल एक स्मृति-कोष बनकर रह जाता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो विवेक का सच्चा स्वरूप वही है जो स्वयं को हर क्षण नये आलोक में देखने को तत्पर रहे। जो मस्तिष्क स्वयं के अहं को छोड़कर सत्य के प्रति खुला है, वही आत्मबोध की दिशा में अग्रसर हो सकता है।
यह सुविचार हमें सिखाता है कि परिवर्तन केवल बाह्य विकास का साधन नहीं, आत्मा की यात्रा का अनिवार्य पड़ाव है। जो बदलने से डरता है, वह स्वयं को खो देता है। जो बदलने को तैयार होता है, वह हर क्षण स्वयं को नव्य रूप में प्राप्त करता है। .
"सनातन" (एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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