काश, पीड़ा का सगुन सा रूप हो जाता।
डॉ रामकृष्ण मिश्र
भावना की व्यग्रता का वेगमय आक्रोशसोच की तल्खी सुलगता सकारण प्रतिरोश।
तमतमाये शब्द बहसी हों अगर फिर भी
काश कोई आप्त स्नेहिल धूप हो जाता।।
वृक्ष सा डैना पसारे शीत आतप में ं
काट लेंगे तमस रजनी भले गपशप में ं।
तनिक कलरव की हँसी में पिघल जाने को
काश! मनहर गीत-रस में स्वयं खो जाता।।
फूल झरते हैं कमेरोंं के नहीं यों ही
सोच हो सकती सहज परित्याग की ज्योंही।
कभी चुनने के लिए शायद कोई आता
और जूही की महक सा प्रेम बो जाता।। 71
रामकृष्ण, गया जी
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