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वर्तमान राजनीति में धार्मिक स्थलों की यात्रा: मजबूरी, मानसिकता और मतलबी धर्मनिरपेक्षता का विश्लेषण

वर्तमान राजनीति में धार्मिक स्थलों की यात्रा: मजबूरी, मानसिकता और मतलबी धर्मनिरपेक्षता का विश्लेषण

✍️ डॉ. राकेश दत्त मिश्र
भारतीय राजनीति में धर्म और धार्मिक स्थलों की यात्रा सदैव एक संवेदनशील और बहस का विषय रही है। आज के परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक हो गया है कि आखिर क्या कारण है कि वर्तमान समय में कई राजनेताओं को मंदिरों में जाने से संकोच होता है जबकि मस्जिद में जाकर बैठक या सभा करने में वे गौरव महसूस करते हैं? क्या यह सचमुच धर्मनिरपेक्षता की मिसाल है या केवल राजनीतिक दिखावा? यह आलेख इन्हीं सवालों की तह में जाकर एक निष्पक्ष, ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि


भारत की राजनीति में धार्मिक स्थलों का उपयोग जनभावनाओं को प्रभावित करने के लिए प्राचीन काल से होता आया है। स्वतंत्रता संग्राम के समय महात्मा गांधी मंदिरों में भजन करते थे, वहीं मस्जिदों में जाकर भी संदेश देते थे। उनका उद्देश्य समाज को एकसूत्र में बांधना था। लेकिन स्वतंत्र भारत में धीरे-धीरे धर्म राजनीति का औजार बनता चला गया।

2. वोट बैंक की राजनीति और उसका प्रभाव


धर्म आधारित वोट बैंक ने भारतीय राजनीति में गहरी पैठ बना ली है। राजनेता मंदिर में जाने से इसलिए कतराते हैं कि कहीं उन्हें बहुसंख्यकवादी करार न दे दिया जाए। वहीं, अल्पसंख्यकों के बीच पहुंचने और उनके धार्मिक स्थलों पर जाने से उन्हें धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु घोषित किया जाता है। यह एक प्रकार का राजनैतिक समीकरण है, जिसमें तुष्टिकरण एक बड़ी भूमिका निभाता है।

3. मीडिया की भूमिका


मीडिया का भी एक महत्वपूर्ण योगदान है इस मानसिकता को पोषित करने में। जब कोई नेता मंदिर जाता है, तो उसे "हिन्दुत्व की राजनीति" कहकर प्रचारित किया जाता है। जबकि मस्जिद में जाने पर उसे "समावेशी नीति" का प्रतीक बताया जाता है। यह दोहरे मानदंड न केवल राजनीतिक संस्कृति को दूषित करते हैं, बल्कि समाज को भी बांटते हैं।

4. धर्मनिरपेक्षता की वास्तविक अवधारणा


भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है, जिसका अर्थ है राज्य का किसी धर्म से कोई सरोकार नहीं होगा। लेकिन वर्तमान में धर्मनिरपेक्षता को एक खास धर्म के प्रति झुकाव के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। मंदिर जाने को सांप्रदायिकता और मस्जिद जाने को धर्मनिरपेक्षता की उपमा देना, संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है।

5. मंदिर से डर क्यों?


लेबलिंग का डर: मंदिर जाने वाले नेताओं को "हिंदू कट्टरपंथी" करार देने का डर रहता है।


धर्मनिरपेक्ष छवि बिगड़ने का भय: विशेषकर वामपंथी और उदारवादियों के बीच मंदिर जाना एक पिछड़ी मानसिकता का प्रतीक मान लिया जाता है।


पार्टी लाइन और विचारधारा: कई दलों की विचारधारा ही ऐसी है कि वे किसी भी प्रकार के हिन्दू प्रतीकों से दूरी बनाए रखते हैं।

6. मस्जिद में जाने की खुशी क्यों?


तुष्टिकरण की राजनीति: अल्पसंख्यकों के वोट हासिल करने की रणनीति के तहत नेताओं को मस्जिद जाना जरूरी लगता है।


धर्मनिरपेक्ष दिखने की होड़: मीडिया, बुद्धिजीवी वर्ग और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर खुद को सहिष्णु दिखाने की होड़ में मस्जिद जाना एक प्रतीकात्मक कदम बन गया है।


सामाजिक प्रभाव: अल्पसंख्यक समुदाय में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए नेताओं को ऐसे कदम उठाने पड़ते हैं।

7. समरसता बनाम सांप्रदायिकता


नेताओं का किसी भी धर्मस्थल पर जाना अगर निजी श्रद्धा का विषय हो, तो उसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन जब यह राजनीतिक स्वार्थ के लिए किया जाए, तब यह समाज में विभाजन का कारण बनता है। मंदिर जाना सांप्रदायिक और मस्जिद जाना धर्मनिरपेक्ष कहना, समाज में भेदभाव को बढ़ावा देता है।

8. समाज पर प्रभाव


इस तरह के दोहरे मानकों से समाज में असंतोष फैलता है। बहुसंख्यक समुदाय स्वयं को उपेक्षित महसूस करता है, जबकि अल्पसंख्यक समुदाय यह मान बैठता है कि राजनीतिक संरक्षण उसका अधिकार है। यह असंतुलन अंततः समाज की एकता को प्रभावित करता है।
9. समाधान की दिशा में

  • सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान: नेताओं को चाहिए कि वे हर धर्म के धार्मिक स्थलों पर समान श्रद्धा दिखाएं।
  • राजनीति में धर्म का सीमित हस्तक्षेप: राजनैतिक प्रचार में धार्मिक प्रतीकों का दुरुपयोग बंद हो।
  • मीडिया की निष्पक्षता: मीडिया को चाहिए कि वह नेताओं की धार्मिक यात्राओं को एकसमान नजरिए से देखे।
  • शिक्षा और जागरूकता: जनता को शिक्षित करना होगा कि धर्म और राजनीति को मिलाना देशहित में नहीं है।

10. निष्कर्ष

आज की राजनीति में मंदिर जाने से डर और मस्जिद में खुशी, एक विकृत मानसिकता का परिणाम है। यह मानसिकता राजनीति को धर्म से जोड़कर समाज में भ्रम और विभाजन उत्पन्न करती है। यदि भारत को एक सशक्त, एकजुट और प्रगतिशील राष्ट्र बनाना है, तो धर्मनिरपेक्षता की पुनः व्याख्या करनी होगी—जहां मंदिर और मस्जिद दोनों समान रूप से सम्मानित हों, और नेता किसी एक धर्म के प्रतीक नहीं, बल्कि पूरे देश के प्रतिनिधि बनें।

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