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भर सावन हम शाकाहारी

भर सावन हम शाकाहारी

मार्कण्डेय शारदेय:
माई कहलसि, म‌उसी कहलसि एह माह के महिमा भारी।
भरसावन हम शाकाहारी।।
रोज चलेला मुरुगा-मछरी, रोज बनेला बकरा-बकरी।
सावन आइल त खातानी दाल-भात आ खीरा-ककरी।
जीभ न माने, मन छछनेला, कइसों खाईं ई लाचारी।
भरसावन हम शाकाहारी।।
अँगुरी प दिन गिनत बितेला, क दिन बीतल, क दिन बाकी।
जब सलीम घर गोश्त बनेला, मन मचले समुझावसु काकी।
कुछ दिन अउर बराव बबुआ! भादो से न बनी तरकारी।
भरसावन हम शाकाहारी।।
हम बुझनउक भले मानी पर, बबुआ-बुचियन के न रहाला।
किसिम-किसिम के भले परोसा, रोअल-रूसल सहल न जाला।
नन्हका जिद्दी सभसे अधिका, खूब घुमाके फेंके थारी।
भरसावन हम शाकाहारी।।
घायल के गति घायल जाने, कइसे दरद बताईं आखिर?
कइसन नेम-धरम बा बाबा! कहँवा रोईं-गाईं आखिर?
ग्यारह माह पाप यदि खइलीं, सावन कतना पाप पखारी?
भरसावन हम शाकाहारी।।

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