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चंद्रशेखर: इंसानियत की मिसाल

चंद्रशेखर: इंसानियत की मिसाल

(पुण्यतिथि पर श्रद्धासुमन)
✍️ डॉ राकेश दत्त मिश्र 

सियासत के सिंहासन पर एक साधु हृदय

भारतीय राजनीति के इतिहास में कुछ चेहरे ऐसे हैं, जो सत्ता के शिखर पर होकर भी आत्मा की ऊँचाई पर कायम रहते हैं। चंद्रशेखर उन्हीं बिरले राजनेताओं में से एक थे। वे न तो कुर्सी के मोह में उलझे, न ही राजनीतिक छल-प्रपंच में रम गए। उन्होंने सत्ता को सेवा का माध्यम माना, राजनीति को परिवर्तन की प्रक्रिया और कार्यकर्ताओं को परिवार। उनके भीतर एक ऐसा संवेदनशील मनुष्य जीवित रहा, जो सत्ता के सबसे कठोर दौर में भी मानवीयता की लौ को बुझने नहीं दिया।

गाँव की मिट्टी से निकली चेतना

उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद स्थित इब्राहीमपट्टी गाँव में 1 जुलाई 1927 को जन्मे चंद्रशेखर की जड़ें गहराई से भारत की धरती में धँसी हुई थीं। उनके जीवन का आधार खेत-खलिहान, गाँव की चौपाल, संघर्ष और आत्मीयता था। यही कारण था कि उन्होंने कभी सियासत को सत्ता की सीढ़ी नहीं, समाज के दुख-दर्द को समझने और मिटाने का औज़ार माना।

उनका कहना था—"हमने समाजवाद किताबों से नहीं, जीवन की पाठशाला से सीखा है। खेत में काम करते हुए, बग़ल के किसान की पीड़ा महसूस कर हमने जाना कि असली समाजवाद क्या होता है।"

सत्ता से ज़्यादा संबंधों को तरजीह

चंद्रशेखर का सार्वजनिक जीवन लगभग छह दशकों तक फैला रहा, जिसमें वे भारत के प्रधानमंत्री, सांसद, पार्टी अध्यक्ष, सामाजिक संगठनों के संस्थापक—सबकुछ बने। लेकिन इन सभी पदों से ऊपर वे एक "मानवीय राजनेता" थे। उनके जीवन के अनगिनत किस्से गवाह हैं कि उन्होंने इंसान को इंसान समझा, पद या विचारधारा के खाँचों में नहीं बाँधा।

वे बीमार साथियों को अस्पताल ले जाते, उनका इलाज कराते। विरोधी रहे रामधन हों या सहयोगी रहे गौतम, सबकी चिकित्सा के लिए उन्होंने व्यक्तिगत प्रयास किए। जेपी (जयप्रकाश नारायण) के अस्वस्थ होने पर मुंबई के अस्पताल में उनके साथ दिन-रात बिताना, उनके लिए साधारण घटना थी, लेकिन आज के राजनेताओं के लिए उदाहरण।

गरीब कार्यकर्ता के गुड़ में आत्मीयता की मिठास

एक बार एक बूढ़ा कार्यकर्ता चंद्रशेखर के पास अपने झोले में गुड़ लेकर आया। वे घर पर नहीं थे। लौटने पर जब उन्हें झोले का पता चला, तो उन्होंने कार्यकर्ता को अपने साथ गाँव ले जाकर उसके हाथों से गुड़ खाया। कहा—“तुम्हारा गुड़ है, पानी मँगाओ, तुम्हारे हाथ से खाऊँगा।” यही था उनका सच्चा लोकतंत्र। सत्ता के शिखर पर बैठकर भी ज़मीन से जुड़े रहना, केवल चंद्रशेखर जैसे नेता के लिए ही संभव था।

आग बुझाने के लिए सम्मेलन छोड़ा

1984 में चित्रकूट में युवा समाजवादियों का सम्मेलन चल रहा था। मंच पर दिग्गज नेता मौजूद थे। तभी पास के एक गाँव में आग लग गई। चंद्रशेखर ने बिना एक पल गंवाए सभा छोड़ दी और आग बुझाने में जुट गए। बाकी नेता भी उनके पीछे-पीछे गाँव की ओर दौड़ पड़े। उनके लिए एक किसान का घर, एक पूरे सम्मेलन से अधिक महत्त्वपूर्ण था। यह उनकी संवेदनशीलता और ज़मीनी सोच का परिचायक था।

जेल में भी करुणा जीवित रही

आपातकाल के समय चंद्रशेखर पटियाला जेल में बंद थे। जेल डायरी उनकी संवेदनशील आत्मा की साक्षात अभिव्यक्ति है। एक युवक राजू, जो मामूली अपराध में बंद था, अपनी जमानत न भर पाने के कारण जेल में था। चंद्रशेखर ने उसकी जमानत राशि की व्यवस्था की। जब रिहाई का समय आया, तो राजू ने कहा कि वह जेल के बाहर जाकर कहाँ जाएगा, उसका कोई नहीं है। तब चंद्रशेखर ने उसे अपनी देखरेख में रखने का निर्णय लिया।

उन्होंने लिखा—“जटिल है निराश्रित होने की समस्या भी...।” ये शब्द उस समय के प्रधानमंत्री के नहीं, बल्कि एक सजग संवेदनशील मानव के हैं, जो राजनीति में संवेदना का पाठ पढ़ा रहा था।

विश्वास और सादगी का पर्याय

मोहन गुरुस्वामी द्वारा उल्लेखित एक घटना में, चंद्रशेखर के पास पैसे नहीं थे, लेकिन ईमानदारी इतनी थी कि इंडियन एयरलाइंस का अधिकारी उन्हें बिना टिकट ही फ्लाइट में बैठा देता है। कहता है—“आप भले चुनाव हार गए हों, लेकिन आपने अपनी विश्वसनीयता नहीं खोई है।” ऐसी थी उनकी छवि, जिसे सत्ता नहीं बना सकती, केवल जीवन की साधना से अर्जित की जा सकती है।

रचनात्मक कार्यों के प्रति समर्पण

राजनीति के बाद उन्होंने दिल्ली और देश के पिछड़े क्षेत्रों में ‘भारत यात्रा केंद्र’ की स्थापना की। जेपी स्मारक, शहीद स्मारक, देवस्थली विद्यापीठ, पांच सौ बेड का अस्पताल, युवा भारत ट्रस्ट, नरेंद्र निकेतन, ISID जैसे कई संस्थान उन्होंने खड़े किए। लेकिन इन संस्थानों में अपने किसी परिजन को स्थान नहीं दिया।

मरणासन्न अवस्था में उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा कि इन ट्रस्टों की संपत्ति को ‘पब्लिक प्रॉपर्टी’ घोषित कर दिया जाए। यह अपूर्व उदाहरण है—किसी सार्वजनिक व्यक्ति के द्वारा स्वयं के जीवन की कमाई को राष्ट्र को सौंप देने का।

सार्वजनिक जीवन के संत

आज जब राजनीति व्यक्तिगत लाभ और वंशवाद में उलझी दिखती है, तब चंद्रशेखर जैसे नेता का स्मरण करना अत्यंत आवश्यक है। वे बताते हैं कि सत्ता सेवा के लिए होनी चाहिए, स्वार्थ के लिए नहीं। उनके जीवन से सीखा जा सकता है—


राजनीति में ईमानदारी और आत्मा का होना जरूरी है।

मानवता सबसे बड़ा मूल्य है, विचारधारा बाद में आती है।

राजनीति केवल भाषण देने का मंच नहीं, लोगों की पीड़ा बाँटने का माध्यम है।

श्रद्धांजलि के स्वर में सीख

आज 8 जुलाई को चंद्रशेखर जी की पुण्यतिथि है। यह केवल स्मरण का दिन नहीं, आत्ममंथन का क्षण भी है। उनके जीवन से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए—कैसे राजनेता होते हुए भी इंसान बने रहा जा सकता है, कैसे सत्ता के शिखर से सेवा की गहराई में उतर सकते हैं।

चंद्रशेखर एक विचार हैं—जिन्हें पढ़ना, जीना और अपनाना चाहिए।
उनका जीवन एक संदेश है—सत्ता नहीं, सेवा से महानता मिलती है।

दिव्य रश्मि परिवार की ओर से उन्हें  भावपूर्ण श्रद्धांजलि!
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