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सावन का यह मास है ,

सावन का यह मास है ,

जन जन की आस है ,
भक्तों की यह प्यास है ,
सावन सुखद एहसास है ।
जन जन का विश्वास है ,
सावन शिव का वास है ,
भोले दर्शन की त्रास है ,
जो स्वयं श्वास नि: श्वास है ।
भक्तों के होते जो खास हैं ,
वही तो होते हमारे काश हैं ,
जो रहते सदा हमारे पास हैं ,
जिनके हम सब ही दास हैं ।
उनके बिन सब उदास हैं ,
उनकी चाहत सर्वनाश है ,
कृपाहीनता गले फास है ,
कृपा बिन ह्रास ही ह्रास है ।
जहाॅं शिव वहीं तो साॅंस है ,
शिवशक्ति बिन उर्ध्वसाॅंस है ,
शिव बिन घर भूत का डेरा ,
जहाॅं शिव वहीं तो सुवास है ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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