"आश्चर्यहीनता का आख्यान"
निरंतर संभावनाओं की थकी हुई भीड़ मेंमैं खोजता हूँ एक ऐसा अप्रत्याशित
जो किसी एक पल में
मुझे भीतर तक हिला दे
कल्पनाओं की अंतिम चौखट पर
मैं खड़ा हूँ—
उसे यथार्थ में खींच लाने की ज़िद में
पर हर नया दृश्य
बस पुरानी उदासी का विस्तार बनता जाता है
आँखों के सामने
सब कुछ संभव हो चला है
इतना संभव
कि कुछ भी नया
मुझ पर असर नहीं डालता
मैं लगातार आगे बढ़ता हूँ
एक चुपचाप रोमांच की तरह
जो अब रोमांच नहीं रहा
स्वादेंद्रियाँ
अलग से कुछ माँगती हैं
एक अतिरिक्त आवेग
एक बनावटी विस्मय
यह संसार
अपनी विस्मयहीनता में
मुझे रोज़ थोड़ा और खाली कर देता है
अब कुछ भी
चकित नहीं करता मुझे
न सुख, न दुःख
न हार, न विजय
आश्चर्य होने का षड्यंत्र
मुझे ख़ुद रचना पड़ता है
नकली विस्मय की सजावट में
मैं ढूँढ़ता हूँ
मनुष्य होने का कोई तर्क
और हर बार
मेरा मनुष्य होना
थोड़ा और निर्विकार
थोड़ा और निस्तेज
होता चला जाता है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से
✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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