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चातुर्मास महात्म्य (अध्याय - 10)

चातुर्मास महात्म्य (अध्याय - 10) 

आनंद हठिला पादरली (मुंबई)
इस अध्याय में पढ़िये
👉 (ज्ञानयोग और उसके साधन, स्कन्द स्वामी का सेनापतित्व और कौमार व्रत)
        
महादेवजी कहते हैं👉 जब शरीर में ममता नहीं रहती, जब चित्त अत्यन्त निर्मल होता है और जब श्रीहरि में भक्ति योग दृढ़ होता है, तब कर्म से बन्धन नहीं होता। जब कर्म करते हुए ही मनुष्यों का मन सदा शान्त रहे, तब योगमयी सिद्धि प्राप्त होती है। भगवान् विष्णु को कर्मो के स्वामी जानो। उनमें सब कर्मो का समर्पण करके मनुष्य संसार-बन्धन से छूट जाता है। यही उत्तम ज्ञान है, यही उत्तम तप है और यही उत्तम श्रेय हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण को सर्वकर्म समर्पण कर दिया जाय। यही निर्मल योग है इसी को निर्गुण कहा गया है। संसार में वही ज्ञानवान्, वही योगियों में अग्रगण्य और वही महायज्ञों का अनुष्ठान करने वाला है, जो श्रीहरि के चरणों में भक्ति रखता है। निरंजन भगवान् विष्णु को जान लेने पर जिसने मनोमय, कर्ममय और वाणीमय दण्ड को धारण किया है- यानी इन तीनों को वश में कर लिया है, वही त्रिदण्डी जानने  योग्य है। अज्ञानी सदा बन्धनात्मक कर्म द्वारा बाँधा जाता है। द्विजों को श्रुतियों और स्मृतियों के अनुशीलन से मोक्ष का मार्ग प्राप्त होता है। यह मोक्ष मानो एक नगर है, जिसके चार दरवाजे हैं। उन दरवाजों पर शम आदि चार द्वारपाल सदा विद्यमान रहते हैं। वे ही मोक्ष-नगर में प्रवेश कराने वाले हैं। अत: मनुष्यों को पहले उन्हीं चारों का सेवन करना चाहिये। उनके नाम इस प्रकार हैं-शम, सद्रिचार, सन्तोष और साधुसंग। ये चारों जिसके हाथ में हैं, उसकी सिद्धि दूर नहीं है। भगवान् विष्णु की भक्ति तथा उत्तम धर्म के आचरण से मनुष्यों को योग सिद्धि प्राप्त होती है। मनुष्य ज्ञान के लिये विद्यालयों में भटकता फिरता है। यदि कहीं सद्गुरु प्राप्त हो जायँ तो उनसे तत्काल निर्मल दीपशिखा की भाँति यथार्थ ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है। राग और द्वेष छोड़कर जो क्रोध और लोभ से रहित हो गया है, जिसकी सर्वत्र समान दृष्टि है, जो विष्णु भक्त का दर्शन करता है, जिसके हृदय में सब जीवों के प्रति दया का भाव स्थिर है तथा जो शौच एवं सदाचार से युक्त है, वह योगी कभी दुःख नहीं पाता। जो माया आदि के आवरणों से रहित तथा मिथ्या वस्तु से विरक्त है और कुसंग से दूर रहता है, वह योगसिद्ध पुरुष है। बुद्धि दो प्रकार की होती है। एक त्याज्य और दूसरी ग्राह्य। संसार विषयक बुद्धि त्याग देने योग्य है और परब्रह्म के चिन्तन में लगने वाली कल्याणमयी बुद्धि ग्रहण करने योग्य है। पार्वती ! श्रीविष्णु का जो साकार और निराकार स्वरूप है, उसमें प्रतिष्ठित होने वाले इस अक्षर, अव्यक्त, अमृत एवं सम्पूर्ण तत्त्व को बताया गया। इस प्रकार जानकर योगीपुरुष संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है। मनुष्य सद्गुरु के उपदेश से इस ज्ञान को पाता है। जब उसके ऊपर गुरु प्रसन्नचित्त होते हैं, तब मानो सम्पूर्ण विश्व प्रसन्न हो जाता है, जिसने गुरु को सन्तुष्ट किया, उसने समस्त देवताओं और पितरों को सन्तुष्ट कर लिया। गुरु का उपदेश, भगवत् प्रतिमा का पूजन, उत्तम विचार, शम में मन का तत्पर होना और ज्ञान पूर्वक कर्म का अनुष्ठान करना- यह सब मोक्षसिद्धि का लक्षण है। द्वादशाक्षरमन्त्र सब पापों का नाश करने वाली है। यह दुष्टों का दमन करने वाला और परब्रह्म की प्राप्ति कराने वाला है। देवि! द्वादशाक्षर रूपधारी निर्मल परब्रह्म के स्वरूप को मैंने तुम से प्रकाशित किया है। जो मनुष्य इस द्वादशाक्षर मन्त्र रूप भगवत् स्वरूप को, जो योगियों के ध्यान करने योग्य तथा भक्ति से ग्राह्य है, चातुर्मास्य में श्रद्धापूर्वक चिन्तन करता है, भगवान् विष्णु उसके कोटि जन्मों के पापों को जलाकर मोक्ष प्रदान करते हैं।
         
ब्रह्माजी कहते हैं- एक समय महाबली तारकासुर के भय से भागे हुए देवताओं ने महादेवजी की स्तुति की और उनकी आज्ञा से कुमार कार्तिकेय को अपना सेनापति बनाया। फिर स्कन्द के तेज से प्रबल होकर सब देवता तारकासुर से युद्ध करने लगे। उस समय देवताओं ने दानवों की सेना को मार गिराया। भगवान् विष्णु के चक्र से छिन्न-भिन्न होकर सहस्रों दैत्य पृथ्वीपर गिर पड़े। युद्ध में दानव सेना को नष्ट होती देख तारकासुर देवताओं का सामना करने लगा देवेश्वर स्कन्द ने बाणों की बौछार से उसकी सेना को शीघ्र ही तितर-बितर कर डाला। तत्पश्चात् भगवान् विष्णु को प्रेरणा से कार्तिकेयजी ने शक्ति का प्रहार करके सारथि सहित तारकासुर को क्षण भर में भस्म कर दिया। शेष दैत्य तारकासुर को मरा हुआ देख पाताल में भाग गये तब देवताओं ने कुमार के पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा की। विजय प्राप्त करके शिव आदि सब देवताओं ने स्वामी कार्तिकेय को देवताओं के सेनापति पद पर अभिषिक्त किया। इस प्रकार तारकासुर को मारकर सातवें दिन बालक कार्तिकेय ने मन्दराचल पर जा अपने माता-पिता को प्रसन्न किया। परमानन्द में निमग्न हो स्कन्द ने सब वृत्तान्त स्वयं ही माता-पिता से कहा। उस समय भगवान् शंकर ने पुत्र का विवाह कर देते का विचार किया और कार्तिकेय से वत्स! तुम्हारे विवाह का समय प्राप्त है, तुम पत्नी प्राप्त करके उसके साथ धर्माचरण करो।' पिता की यह बात सुनकर स्वामी कार्तिकेय ने कहा-' भगवन्! संसार के दृश्य और अदृश्य पदार्थों में से मैं किसका ग्रहण और किसका त्याग करूँ। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब मेरे लिये माता पार्वती के समान हैं और जितने भी पुरुष हैं, उन सबको मैं आपके रूप में देखता हूँ। आप मेरे गुरु हैं, अत: मुझे नरक में डूबने से बचाइये। मैंने आपके प्रसाद से यह विवेक प्राप्त किया है। भयंकर संसार- सागर में मैं फिर न गिर जाऊँ, इसकी चेष्टा रखें। जैसे दीपक हाथ में लेकर किसी वस्तु को खोजने वाला पुरुष उस वस्तु को देख लेने पर उसके लिये स्वीकार किये जाने वाले अन्य सब साधनों को त्याग देता है, उसी प्रकार योगी ज्ञान प्राप्त कर लेने पर संसार को त्याग देता है। सर्वज्ञ परमेश्वर ! सर्वव्यापी ब्रह्म को जानकर जिसके सब कर्म निवृत्त हो जाते हैं, उसको विद्वान् पुरुष योगी कहते हैं। महेश्वर! मानवों के लिये ज्ञान अत्यन्त दुर्लभ है ज्ञानीजन प्राप्त किये हुए ज्ञान को किसी प्रकार भी खोना नहीं चाहते। यह ज्ञान आपके प्रभाव से ही प्राप्त होने योग्य है। मैं संसार बन्धन से छूटने की इच्छा रखता हूँ। अत: मुझसे इस प्रकार विवाह आदि करने की बात नहीं कहनी चाहिये। '
         
जब देवी पार्वती ने विवाह के लिये बार-बार आग्रह किया, तब कार्तिकेयजी पिता-माता को प्रणाम करके क्रौंच पर्वतपर चले गये और वहाँ परम पवित्र आश्रम में बैठकर बड़ी भारी तपस्या करने लगे। उन्होंने द्वादशाक्षर बीजरूप परब्रह्म का जप किया और पहले ध्यान से सब इन्द्रियों का वश में करके एक मासतक मन को योग में लगाकर ज्ञानयोग प्राप्त कर लिया। जब उनके सामने अणिमा आदि सिद्धियाँ आयीं, तब वे उनसे क्रोधपूर्वक बोले-'अरी ! यदि अपनी दुष्टता के कारण तुम लोग मेरे पास भी चली आयीं, तो मेरे-जैसे शान्त पुरुषों का कभी पराभव न कर सकोगी।
         
यह चातुर्मास्य का माहात्म्य सब पापों का नाश करने वाला है। जो भगवान् शिव अथवा विष्णु को अपने हृदय में स्थापित करके अभेद-बुद्धि से उनके अद्वितीय स्वरूप का चिन्तन करता है, उसके लिये शत्रु भी अत्यन्त प्रिय हो जाता है।
                           
चातुर्मास महात्मय सम्पूर्ण 

संदर्भ:👉 श्रीस्कन्द महापुराण

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