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परिवार, प्रेम और शर्त

परिवार, प्रेम और शर्त

जय प्रकाश कुवंर
परिवार क्या होता है, परिवार में पति पत्नी का प्रेम क्या होता है, और किसी शर्त की पूर्ति के लिए अनावश्यक रूप से पति पत्नी में एक दूसरे पर दबाव बना कर शर्त मनवाने पर परिवार की हालत किस हद तक खराब होती है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमें अपने धर्मग्रंथ रामायण और अयोध्या के महाराज दशरथ जी के परिवार से मिलता है।
महाराज दशरथ जी अयोध्या के चक्रवर्ती राजा थे। उनकी तीन पत्नियां थीं, कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा। वैसे तो महाराज दशरथ जी अपनी सभी तीन पत्नियों से प्रेम करते थे, लेकिन वो कैकेयी को ज्यादा चाहते थे। उन्हें समयानुसार तीनों पत्नियों से चार पुत्र हुए। कौशल्या से राम, कैकेयी से भरत और सुमित्रा से दो पुत्र लक्षमण और शत्रुघ्न पैदा हुए।
किसी विशेष अवसर पर युद्धक्षेत्र में उनके साथ गयीं उनकी पत्नी कैकेयी ने उनकी प्राण रक्षा की थी और उन्हें युद्ध में विजयी बनवाया था। इससे खुश होकर उन्होंने कैकेयी को दो वरदान दिये थे, जिसे कैकेयी ने स्वीकार करते हुए समय आने पर मांगने के लिए कह छोड़ा था।
जब दशरथ जी के चारों पुत्र बड़े हुए और वो खुद बुढ़े हो गये तो उन्होंने कुल के रीति रिवाज और नैतिक आदर्शो तथा मूल्यों के अनुसार अपने बड़े पुत्र राम को अयोध्या का राजा बनाने का निश्चय किया और उसके मुताबिक दिन, लग्न आदि तय किया गया।
इधर जब यह बात महारानी कैकेयी को मालूम हुआ तो उन्होंने अपने बेटे भरत को अयोध्या के राजा के रूप में देखने को ठान ली। इसके लिए कैकेयी ने अपने पति महाराज दशरथ जी को उनको दिये गये पुरानी शर्तों और वचनों को याद दिलाया और शर्तों के मुताबिक भरत के लिए अयोध्या का राज और राम के लिए तपस्वी वेश में चौदह साल का वनवास मांग लिया। यहीं से शर्त ,वचन और अनुचित मांग के चलते पति पत्नी में विछोह और परिवार में अशांति का वातावरण बन गया।
यह सब कुछ तब हुआ जब भरत और शत्रुघ्न अपने ननिहाल में थे। राम अपने पिता द्वारा माता कैकेयी को दिये गये वचन और शर्त के मुताबिक चौदह वर्ष के लिए वनवास को चले गए। पति के प्रेम में पड़कर पत्नी सीता और अपने बड़े भाई के प्रेम में पड़कर छोटे भाई लक्षमण भी उनके साथ वन को उनके साथ चले गए। इधर अपने पुत्र राम के वियोग में महाराज दशरथ जी ने अपना प्राण त्याग दिया। जिस समय परिवार में खुशी का दिन आया था उस समय शर्त के चलते परिवार को दुख का दिन देखने को मिला और तीनों रानियां विधवा बन गयीं। यही नहीं, बल्कि एक चक्रवर्ती सम्राट के मृत शरीर का भी समय पर दाह संस्कार नहीं हो पाया और भरत शत्रुघ्न के अयोध्या अपने ननिहाल से लौटने तक मृत शरीर को तेल में डुबो कर रखना पड़ा।
खबर पाकर जब भरत शत्रुघ्न अयोध्या आये तो उन्हें अपनी माता के कर्मों की जानकारी मिली और उन्हें अपनी माता से नफरत हो गया। दशरथ जी की अंत्येष्टि करने के उपरांत वो अयोध्या की राजगद्दी पर न बैठ कर तुरंत राम को वनवास से लौटाने के लिए उनके पास भाई शत्रुघ्न, कुलगुरु और माताओं के साथ वन को प्रस्थान कर गए। वहाँ राम ने उनको समझाया कि हम दोनों भाईयों को इस समय पिता द्वारा माता को दिये गये शर्त और वचनों को मानना ही धर्म है। अतः भरत को अपनी चरण पादुका देकर अयोध्या वापस भेज दिया और स्वयं सीता तथा लक्षमण के साथ वनवास में रह गए।
भरत जी अयोध्या लौट कर राम की चरण पादुका को राजगद्दी पर रख कर स्वयं बड़े भाई के वियोग में राजमहल छोड़ कर नंदीग्राम में कुटिया बनाकर रहने और तपस्या करने लगे। उन्होंने ने भी राम जैसा तपस्वी का वेष धारण कर लिया और वही से राज्य का काम देखते थे।
अपने तीन भाईयों को राजमहल छोड़ कर जंगल में रहने से दुखी होकर शत्रुघ्न ने भी राजमहल छोड़ दिया और बिना किसी को बताए वो भी नंदीग्राम में ही भरत की कुटिया के बाहर तपस्वी की तरह रहने लगे।
एक दिन रात के समय राजमहल की छत पर शत्रुघ्न की पत्नी श्रुति कीर्ति को अंधेरे में टहलते देखकर माता कौशल्या ने उससे जाकर पूछा कि तुम इस समय छत पर क्यों टहल रही हो और शत्रुघ्न कहाँ हैं। इस पर श्रुतिक्रीति ने बताया कि वह उनके बारे में नहीं जानती है, क्योंकि वह तो पिछले तेरह साल से उसे नहीं दिखे हैं। यह सुनकर माता कौशल्या दुखी हो गई। उसी समय रात को ही जब शत्रुघ्न को खोजा गया तो उन्होंने देखा कि नंदीग्राम में भरत कुटिया बनाकर तपस्वी के भेष में रह रहे हैं और उस कुटिया के बाहर एक चट्टान पर शत्रुघ्न अपने बांह को तकिया बनाए गहरी नींद में सो रहे हैं।
माता कौशल्या को यह सब देखकर बहुत दुख हुआ और वह शोकातुर हो उठीं। माता ने जब उनसे पुछा कि बेटे तुम यहाँ क्यों सो रहे हो। इस पर शत्रुघ्न जी भावुक हो उठे और उन्होंने ने माता से कहा कि पिता का आदेश मानकर बड़े भैया वन को चले गए। उनके साथ भाभी सीता और भैया लक्षमण भी वन को चले गए। अब भैया भरत भी नंदीग्राम में कुटिया बनाकर रह रहे हैं। तो अयोध्या के राजमहल का ठाट और सुख क्या केवल मेरे लिए ही है। अतः मैं भी यहाँ भरत भैया के साथ नंदीग्राम में रह रहा हूँ। शत्रुघ्न की इस बात का जबाब माता कौशल्या के पास सिवाय दुखी होने के और कुछ भी नहीं था।
जैसे भाई लक्षमण और भाई भरत ने अपनी पत्नियों को त्याग कर महल के सुख और भोग विलासिता से दूरी बना ली थी, उसी प्रकार शत्रुघ्न ने भी अपने बड़े भाइयों के वन में रहते हुए खुद को भी पत्नी और भोग विलास से दूरी बनाकर नंदीग्राम में रहना पसंद किया था।
इस प्रकार पत्नी प्रेम में पढ़कर दिये गये वचनों, शर्त और उस पर अमल करने के चलते स्वयं महाराज दशरथ असमय स्वर्ग सिधार गए और उनका अच्छा भला परिवार तहस नहस हो गया और विखर गया।
रामायण की यह राम कथा हम जैसे सांसारिक लोगों को यह उपदेश देती है कि चाहे कोई राजा हो या फिर साधारण व्यक्ति, उसे स्त्री प्रेम के मोहजाल में पड़कर कभी बिना सोचे समझे वचनबद्ध नहीं होना चाहिए और किसी अनुचित शर्त का अनुपालन नहीं करना चाहिए। परिवार का संचालन पारिवारिक परंपरा, कुल परंपरा और नैतिक आदर्शो के अनुसार चलता है। इसका संचालन परिवार का मुखिया करता है। परिवार में किसी भी सदस्य के सिर पर अगर मैं और केवल मेरा का भूत सवार हो जाता है , और अगर इसके वशीभूत होकर कोई परिवार के मुखिया से वह वचन लेकर पारिवारिक परंपरा एवं नैतिक आदर्शो से हटकर कुछ शर्त मनवाने का हठ करता है तो परिवार में अशांति छा जाती है एवं परिवार विनष्ट हो जाता है। इससे परिवार में सुख के सारे साधन होते हुए भी परिवार के सभी सदस्यों का जीवन दुखमय हो जाता है, जैसा कि महाराज दशरथ जी के परिवार के साथ हुआ। 
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