योग: अंतः की ब्रह्म यात्रा

योग कोई बाह्य क्रिया नहीं, अपितु आत्मा की अपने परमस्वरूप ब्रह्म की ओर लौटने की एक यात्रा है—एक अंतः यात्रा, जो साधक को मन, बुद्धि और अहंकार की परतों को पार कर आत्मा के मूल में स्थित ब्रह्म से जोड़ देती है। यह यात्रा न तो शरीर तक सीमित है, न विचारों तक—यह तो अनुभव का मार्ग है।
कठोपनिषद (2.3.10) कहती है—
"उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत"
—उठो, जागो और श्रेष्ठ गुरु से ब्रह्मज्ञान प्राप्त करो। यह आह्वान आत्मा को उसके ब्रह्म स्वरूप की ओर जागृत करने का संदेश है, और यही योग का प्रथम चरण है।
योग: अर्थ और स्वरूप: "योग" का शाब्दिक अर्थ है—'युज्' धातु से—जोड़ना। क्या जोड़ना? जीव का ब्रह्म से, चित्त का आत्मा से, और आत्मा का शुद्ध स्वरूप चैतन्य से।
श्वेताश्वतर उपनिषद (2.12) कहती है—
"यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः। तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति॥" (जब मनुष्य आकाश को चमड़े की तरह लपेट लेंगे, तभी बिना ब्रह्मज्ञान के दुःख का अंत होगा—अर्थात असंभव है।)
इसका तात्पर्य है—दुःख की समाप्ति योग के बिना नहीं, और योग ब्रह्मज्ञान के बिना अधूरा है। योग और उपनिषदों का एकात्म भाव: माण्डूक्य उपनिषद, जो महायोग का उपनिषद कहा जाता है, उसमें कहा गया है:
"अयमेव आत्मा चतुष्पात्"
(यह आत्मा चार अवस्थाओं से युक्त है: जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।)
योग की प्रक्रिया इन अवस्थाओं के पार जाकर ‘तुरीय’ में प्रवेश करना सिखाती है, जहाँ केवल ब्रह्म की अनुभूति होती है।
योग की आंतरिक प्रक्रिया: मन से मौन तक
प्रश्नोपनिषद (4.1) कहती है—
"मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः"
(मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है।)
योग मन को वश में करने की विद्या है। जब चित्त शांत होता है, तब ब्रह्म की झलक मिलती है।
श्वेताश्वतर उपनिषद (2.10) में वर्णित है:
"यो योगेन आत्मानं वेत्ति स नित्यं सुखं अश्नुते।"
(जो योग के द्वारा आत्मा को जानता है, वह शाश्वत सुख का अनुभव करता है।)
यह योग केवल 'आसन' या 'प्राणायाम' तक सीमित नहीं, यह तो वह प्रक्रिया है जिसमें ‘अहं’ गलता है और ‘ब्रह्म’ प्रकट होता है।
योग: गुरु की कृपा से संभव:
कठोपनिषद (1.2.23) कहती है—
"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वṛणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥"
(यह आत्मा न प्रवचन, न बुद्धि, न अध्ययन से मिलती है; जिसे वह आत्मा स्वयं चुनती है, उसी को मिलती है।)
योग साधना में गुरु का मार्गदर्शन ही साधक को अंतः की यात्रा में आगे बढ़ाता है।
योग ही ब्रह्म-प्राप्ति का सेतु है।
योग का अंतिम उद्देश्य है—'आत्मा का ब्रह्म में पूर्ण विलय'। यह विलय किसी बाह्य साधन से नहीं, अपितु भीतर उतरकर, मौन की गहराई में जाकर होता है।
जब साधक देह से परे, विचार से परे और अहं से परे जाकर "अहं ब्रह्मास्मि" की स्थिति में स्थित हो जाता है, तभी उसकी योग यात्रा पूर्ण होती है। योग केवल अभ्यास नहीं, अनुभूति है। योग केवल साधन नहीं, साध्यता है। योग केवल बाह्य गति नहीं, ब्रह्म तक की आंतरिक यात्रा है।
इसलिए, उपनिषदों की परंपरा में योग को केवल स्वास्थ्य या लचीलेपन की विद्या न समझें, बल्कि उसे आत्मबोध और ब्रह्मबोध का अमूल्य सेतु मानें।
*(लेखक: अवधेश झा, वेदांत दर्शन, ज्योतिष और योग दर्शन के चिंतक हैं तथा ट्रस्टी एवं अंतरराष्ट्रीय योग समन्वयक - ज्योतिर्मय ट्रस्ट - योग रिसर्च फाउंडेशन, मियामी, फ्लोरिडा, यूएसए हैं।)
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews #Divya Rashmi News, #दिव्य रश्मि न्यूज़ https://www.facebook.com/divyarashmimag
0 टिप्पणियाँ
दिव्य रश्मि की खबरों को प्राप्त करने के लिए हमारे खबरों को लाइक ओर पोर्टल को सब्सक्राइब करना ना भूले| दिव्य रश्मि समाचार यूट्यूब पर हमारे चैनल Divya Rashmi News को लाईक करें |
खबरों के लिए एवं जुड़ने के लिए सम्पर्क करें contact@divyarashmi.com