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"वृद्धाश्रम : सनातन भारत की सामाजिक संरचना में उपयोगिता या विघटन?"

"वृद्धाश्रम : सनातन भारत की सामाजिक संरचना में उपयोगिता या विघटन?"

डॉ राकेश दत्त मिश्र

भारत एक ऐसा देश है जहाँ माता-पिता को देवतुल्य माना गया है। यहां वेदों और शास्त्रों में ‘मातृदेवो भवः’, ‘पितृदेवो भवः’ जैसे उपदेश दिए गए हैं, जिनका उद्देश्य समाज में बड़ों का सम्मान सुनिश्चित करना रहा है। श्रवणकुमार की कथा भारतीय संस्कृति में बाल्यकाल से बच्चों को यह सिखाने हेतु सुनाई जाती रही है कि माता-पिता की सेवा सर्वोच्च धर्म है। परंतु आज के आधुनिक, तथाकथित "सभ्य" समाज में यही श्रवणकुमार वृद्धाश्रमों की ओर माता-पिता को छोड़ कर आगे बढ़ता नजर आता है। यह परिवर्तन केवल एक सामाजिक विघटन नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक जड़ों से कटने का संकेत है।

लेकिन प्रश्न यह है — क्या वृद्धाश्रम केवल सांस्कृतिक पतन का परिणाम हैं, या आज की सामाजिक संरचना में इनकी कोई उपयोगिता भी है? इस आलेख में हम वृद्धाश्रमों की आवश्यकता, उनकी स्थिति, चुनौतियाँ, समाज पर उनका प्रभाव, और सनातन धर्म की दृष्टि से इस विषय का विश्लेषण करेंगे।

1. वृद्धाश्रम की अवधारणा: एक परिचय

वृद्धाश्रम शब्द दो भागों से मिलकर बना है — ‘वृद्ध’ अर्थात् वृद्धजन और ‘आश्रम’ अर्थात् निवास स्थान। यह एक ऐसा संस्थान है जहाँ बुजुर्गों को रहने, भोजन, चिकित्सा और देखभाल की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं। भारत में वृद्धाश्रम की आवश्यकता तब महसूस हुई जब परिवार की पारंपरिक संयुक्त संरचना धीरे-धीरे टूटने लगी और एकल परिवारों का चलन बढ़ा।

जहाँ पहले परिवार में चार पीढ़ियाँ एक साथ रहती थीं, वहीं आज माता-पिता और संतान तक सीमित एकल परिवारों में बुजुर्गों के लिए जगह नहीं बची। ऐसे में वृद्धाश्रम उनके लिए एक वैकल्पिक ठिकाना बन गया है।


2. सनातन धर्म और वृद्धों का स्थान

सनातन धर्म में जीवन को चार आश्रमों में बाँटा गया है — ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। इनमें वानप्रस्थ और संन्यास काल विशेष रूप से बुजुर्गों के लिए माने गए हैं। वानप्रस्थ काल में व्यक्ति संसारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर आध्यात्मिक साधना की ओर प्रवृत्त होता है। परंतु यह साधना परिवार की गोद में, सम्मान के साथ रहने के भाव पर आधारित थी।

शास्त्रों में कहा गया है —

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:"
जहाँ स्त्रियों और वृद्धों का सम्मान होता है, वहीं देवता निवास करते हैं।

सनातन संस्कृति में वृद्ध केवल घर के मुखिया नहीं होते थे, बल्कि वे जीवन के अनुभव, नीति और संस्कार के जीवित ग्रंथ होते थे। उनका निर्णय अंतिम होता था और उनकी सेवा सबसे बड़ा पुण्य मानी जाती थी।


3. बदलती सामाजिक संरचना और वृद्धाश्रम की उत्पत्ति

समय के साथ जैसे-जैसे समाज में नगरीकरण, वैश्वीकरण, शिक्षा और नौकरी की प्रकृति बदली, संयुक्त परिवार का स्वरूप भी बदल गया। बड़े शहरों में रोजगार की तलाश में युवा पीढ़ी को माता-पिता से दूर रहना पड़ा। इसके अलावा महिलाओं की नौकरी में भागीदारी, जीवन की भागदौड़ और भौतिकवाद की बढ़ती प्रवृत्ति ने बुजुर्गों के लिए घर में वह स्थान नहीं छोड़ा जो पहले उन्हें सहज प्राप्त था।

नतीजतन, वृद्धजन या तो अकेलेपन के शिकार हुए या उपेक्षित। अनेक मामलों में वे भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना के भी शिकार बने। ऐसी स्थिति में वृद्धाश्रम उनके लिए एकमात्र आश्रय स्थल बन गया।


4. वृद्धाश्रम : सुविधा या विवशता?

(क) सुविधा के पक्ष में तर्क:
सुरक्षा और देखभाल: अनेक बुजुर्ग ऐसे होते हैं जिनके बच्चे विदेश में या दूरदराज रहते हैं। ऐसे में वृद्धाश्रम में उन्हें चौबीसों घंटे देखभाल, चिकित्सा सुविधा और अन्य बुजुर्गों का साथ मिल जाता है।
सामाजिक सहभागिता: वृद्धाश्रम में समान उम्र के लोगों के साथ रहना उन्हें अकेलेपन से मुक्त करता है।
आध्यात्मिक माहौल: कई वृद्धाश्रम धार्मिक वातावरण और ध्यान-पूजा की सुविधा देते हैं जो वानप्रस्थ और संन्यास काल के अनुकूल है।

(ख) विवशता के पक्ष में तर्क:
संवेदनात्मक उपेक्षा: बच्चों द्वारा माता-पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ना संवेदनात्मक शोषण की श्रेणी में आता है।
सामाजिक कलंक: आज भी बहुत से वृद्धाश्रमों को समाज उपेक्षा की दृष्टि से देखता है।
अस्वस्थ व्यवस्थाएं: कई वृद्धाश्रम सरकारी निरीक्षण के अभाव में अत्यंत निम्न स्तर की सुविधा प्रदान करते हैं, जो उन्हें कारागृह जैसा बना देता है।


5. वृद्धाश्रम : आधुनिक समाज में उपयोगिता

यह सत्य है कि बदलती सामाजिक स्थितियों में वृद्धाश्रम आज कई वृद्धजनों के लिए जीवनदान साबित हुए हैं। विशेषकर वे बुजुर्ग जिनके कोई सगे संबंधी नहीं हैं, जिनके बच्चे परदेश में हैं, या जो किसी मानसिक या शारीरिक रोग से ग्रसित हैं, उनके लिए वृद्धाश्रम एक सुसंस्कृत, सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन प्रदान कर सकते हैं।

वृद्धाश्रम निम्नलिखित तरीकों से उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं —
चिकित्सा सुविधा का केंद्र: कई वृद्धजन बीमारियों से जूझते हैं जिनके लिए नियमित देखभाल जरूरी होती है।
मनोरंजन और मानसिक सक्रियता: कई वृद्धाश्रमों में योग, ध्यान, सत्संग, पुस्तकालय और खेल की सुविधाएँ होती हैं।
आर्थिक सहयोग: जिन बुजुर्गों के पास कम आय है, उनके लिए सरकारी या NGO द्वारा संचालित निशुल्क वृद्धाश्रम सहायक हैं।


6. वृद्धाश्रमों की चुनौतियाँ और सुधार की आवश्यकता

भारत में वृद्धाश्रमों की स्थिति समान नहीं है। कुछ अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त हैं, वहीं अनेक संस्थाएँ संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं।

प्रमुख चुनौतियाँ:
सरकारी निगरानी का अभाव
मानव संसाधनों की कमी (देखभालकर्ता, डॉक्टर, काउंसलर)
मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा
भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन

सुधार की दिशा:
सरकारी सहायता और अनुदान में पारदर्शिता
जनमानस में जागरूकता और संवेदना का संचार
वृद्धाश्रमों को सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित करना
वृद्धजन अधिकार संरक्षण अधिनियम का प्रभावी क्रियान्वयन


7. सांस्कृतिक विघटन बनाम सांस्कृतिक विस्तार

बहस इस बात पर भी है कि क्या वृद्धाश्रम हमारी संस्कृति का पतन है या नई सामाजिक व्यवस्था का अंग? वस्तुतः, इसका उत्तर सरल नहीं है। यदि वृद्धाश्रम केवल इसलिए बने हैं कि बच्चों को माता-पिता के साथ रहने में बाधा है, तो यह चिंतनीय है। लेकिन यदि वे उन वृद्धों के लिए हैं जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है, तो यह एक मानवीय व्यवस्था है।

हमें यह भी समझना होगा कि वृद्धाश्रमों को श्रवणकुमारों की असफलता न मानकर समाज की जिम्मेदारी समझना चाहिए। साथ ही, ऐसी व्यवस्था विकसित करनी चाहिए जहाँ माता-पिता की सेवा घर में ही की जा सके, और वृद्धाश्रम अंतिम विकल्प हों।


8. क्या कोई समाधान है? — मार्गदर्शन की दिशा
घर-घर श्रवणकुमार बनें: बच्चों को प्रारंभ से ही माता-पिता की सेवा, संवेदना और सहअस्तित्व का संस्कार देना होगा।
संयुक्त परिवार की पुनःस्थापना: पारिवारिक मूल्यों का पुनरुद्धार करना आवश्यक है।
‘वृद्ध सेवा’ को सामाजिक आंदोलन बनाना: जैसे बालिका शिक्षा और स्वच्छता को सामाजिक अभियान बनाया गया, वैसे ही वृद्ध सेवा को भी जनांदोलन बनाया जाना चाहिए।


निष्कर्ष

भारत एक आध्यात्मिक राष्ट्र है। यहाँ संबंधों का महत्व केवल शरीर तक सीमित नहीं, वह आत्मा तक जाता है। ऐसे देश में वृद्धाश्रम की बढ़ती संख्या केवल सामाजिक संरचना का प्रश्न नहीं, सांस्कृतिक चेतना का परीक्षण भी है।

वृद्धाश्रम तब तक उपयोगी हैं जब तक वे विकल्प रहकर सुविधा देते हैं। लेकिन यदि वे जीवन के अंतिम वर्षों की विवशता बन जाएँ, तो यह केवल संस्थागत असफलता नहीं, बल्कि पारिवारिक और नैतिक दिवालियापन है।

आइए, हम सब यह प्रण लें कि माता-पिता को वृद्धाश्रम नहीं, अपने हृदय और घर में स्थान दें। और जहाँ वृद्धाश्रम आवश्यक हों, वहाँ उन्हें स्नेह, सम्मान और गरिमा के साथ सज्जित करें। तभी भारत का सनातन स्वरूप जीवित रह पाएगा और हम सच्चे अर्थों में श्रवणकुमार बन पाएँगे।

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