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मांसाहार, हिंसा और प्रकृति का संतुलन: वैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक चिंतन

मांसाहार, हिंसा और प्रकृति का संतुलन: वैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक चिंतन

आज के विज्ञान-प्रधान युग में हम प्रौद्योगिकी, चिकित्सा और अंतरिक्ष विज्ञान की प्रगति पर गर्व करते हैं, लेकिन जब बात प्रकृति के साथ संतुलन की आती है, तो हम शायद अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं। भोजन के नाम पर जानवरों की हिंसक हत्या, सिर्फ स्वाद और लालच के लिए, क्या केवल एक आहारिक विकल्प है या इसके दूरगामी प्रभाव भी हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमें रूस के सूजडल में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलन से मिलता है, जहां भौतिकी, पर्यावरण और भूगर्भ विज्ञान के विशेषज्ञों ने मांसाहार और प्राकृतिक आपदाओं के बीच एक गहरे और चौंकाने वाले संबंध की व्याख्या की।

Einstein Pain Waves (EPW) – प्रकृति की कराह

सम्मेलन में भारत के डॉ. मदन मोहन बजाज, डॉ. इब्राहीम, डॉ. विजयराज सिंह सहित विश्व के 23 से अधिक वैज्ञानिकों ने अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए। उन्होंने बताया कि भारत, जापान, नेपाल, अमेरिका, जॉर्डन, अफगानिस्तान और अफ्रीका जैसे देशों में हाल के वर्षों में आए भूकंपों में एक रहस्यमय शक्ति Einstein Pain Waves (EPW) का हाथ रहा है।

इन तरंगों की उत्पत्ति का कारण बताया गया — कत्लखानों में जानवरों की हत्या के दौरान उत्पन्न हुई कराह, दर्द, चीत्कार, कंपन और उनके द्वारा छोड़ी गई पीड़ा की सूक्ष्म तरंगें। जब एक जानवर को बेरहमी से काटा जाता है, तब वह असहनीय पीड़ा से गुजरता है। उसकी यह पीड़ा केवल उसके शरीर तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह पर्यावरण में नकारात्मक ऊर्जा के रूप में फैल जाती है, जिसे EPW नाम दिया गया है।

कत्लखानों से उत्पन्न उर्जा और उसके प्रभाव

एक साधारण कत्लखाना जहाँ प्रतिदिन लगभग 50 जानवर मारे जाते हैं, वहाँ से औसतन 1040 मेगावॉट की मारक क्षमता वाली शोक तरंगें उत्पन्न होती हैं। दुनिया के 50 लाख से अधिक छोटे-बड़े कत्लखानों से प्रतिदिन 50 लाख करोड़ मेगावॉट की नकारात्मक ऊर्जा का विस्फोट होता है, जो धरती के जैविक और भौगोलिक संतुलन को गंभीर रूप से प्रभावित करता है।


इन कंपन तरंगों का प्रभाव बहुआयामी होता है:

प्राकृतिक आपदाएं: भूगर्भीय असंतुलन उत्पन्न होकर भूकंप, बाढ़, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ज्वालामुखी जैसे संकटों को आमंत्रित करता है।

मानसिक असंतुलन: EPW से प्रभावित वातावरण में रहने वाले मनुष्यों में तनाव, क्रोध, चिड़चिड़ापन, असहनशीलता और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।

सामाजिक विकृति: सामूहिक हिंसा, दंगे, वैमनस्य और अपराध की घटनाएं बढ़ती हैं।


परिवारिक विघटन: मांस खाने वालों के परिजनों में मानसिक विकार, असामान्य बीमारियाँ और पारिवारिक अस्थिरता की संभावना अधिक होती है।

मरते समय जानवरों की पीड़ा – वैज्ञानिक दृष्टिकोण

अनेक वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया है कि जब किसी जानवर को जीवन रहते क्रूरता से मारा जाता है, तो उसकी चीत्कार और शरीर से निकलने वाले स्ट्रेस हार्मोन्स और शोक वेब्ज़ (Sorrow Waves) वातावरण में नकारात्मक ऊर्जा का निर्माण करते हैं।

यह ऊर्जा:

कम से कम 18 महीनों तक मांस खाने वाले व्यक्ति के शरीर और मानसिक प्रणाली को प्रभावित करती है।

परिवार के अन्य सदस्यों को भी अप्रत्यक्ष रूप से नकारात्मक ऊर्जा से प्रभावित करती है।

ऐसे मनुष्यों में हिंसा, लालच, झूठ, क्रोध, लूट, हत्या जैसी प्रवृत्तियाँ बढ़ जाती हैं।

कत्लखानों की क्रूर सच्चाई

आज के आधुनिक यंत्र आधारित कत्लखानों में जानवरों को जिस बर्बरता से मारा जाता है, वह स्वयं सभ्य मानवता के लिए कलंक है। जानवरों को:

कई दिनों तक भूखा रखा जाता है।

उन्हें गर्म पानी (80 डिग्री सेल्सियस) से जलाया जाता है।

उनकी खाल को जीवित अवस्था में उखाड़ा जाता है।

अंग-अंग को धीरे-धीरे अलग किया जाता है।

खून को निकाल कर संग्रह किया जाता है।

इन घटनाओं की कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं, लेकिन दुनिया के कई हिस्सों में यह आज भी रोज़मर्रा की प्रक्रिया बनी हुई है।

वैज्ञानिकों की चेतावनी

जर्मनी, अमेरिका, अफ्रीका और भारत के कुल 700 से अधिक वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि प्रकृति कोई न्यायालय नहीं चलाती, लेकिन जब उसका धैर्य टूटता है तो उसका एक ठंडा श्वास भी धरती पर भूकंप, तूफान और महामारी का कारण बन सकता है।

प्रो. हेड मार्क फीस्ट्न, डेविड थॉमस, जुंनस अब्राहम, क्रिओइबोँद फिलिप्स और डॉ. मदन मोहन बजाज जैसे वैज्ञानिकों ने 20 वर्षों के गहन अनुसंधान के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि जब तक पशुओं की हिंसक हत्या बंद नहीं होती, तब तक:

पृथ्वी पर प्राकृतिक असंतुलन रहेगा।

मानवता रोग, दुख और तनाव से ग्रस्त रहेगी।

मानसिक शांति और सामाजिक समरसता संभव नहीं हो सकेगी।

शाकाहार ही समाधान है

यह आलेख न केवल मांसाहार के भौतिक और वैज्ञानिक दुष्परिणामों को उजागर करता है, बल्कि मानवता को चेतावनी भी देता है कि अब भी समय है वेदों और गुरुकुलों की जीवनशैली की ओर लौटने का।

शाकाहार, अहिंसा और संतुलित जीवन ही वह मार्ग है जो:

प्रकृति को प्रसन्न कर सकता है,

पर्यावरण को संरक्षित रख सकता है,

और मनुष्य को मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से समृद्ध बना सकता है।

स्वाद के चक्कर में हम यदि मासूम प्राणियों की चीखें और धरती की पीड़ा नहीं समझ पाए, तो आने वाला कल न केवल असहनीय होगा, बल्कि शायद अपरिवर्तनीय भी।

अतः आइए — “लाश खाना छोड़ो, शाकाहारी बनो” — यह केवल नैतिक अपील नहीं, वैज्ञानिक चेतावनी भी है।

लेखक: डॉ राकेश दत्त मिश्र
स्रोत: अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलन, सूजडल (रूस)

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