काश — ज़िंदगी किताब होती!
काश!
यह जीवन कोई ग्रंथ होता,
सदियों से मौन पड़ी आशाओं की
कोई वाणी होता,
जिसे स्मृति की अँगुलियों से
धीरे-धीरे पलटता मैं
और जान पाता —
क्या लिखा है विधि के कर में
मेरे लिये...?
मैं पढ़ता —
कब साँझ के मृदुल साये
मेरे कंधों से टकराएँगे,
कब कुछ फूल, कुछ काँटे
मेरे पथ में बिछेंगे,
कब प्रिय स्वर उभरेगा दिशाओं से
कब एकाकीपन
मुझे ढँक लेगा रात्रि के आवरण-सा।
काश!
इस जीवन के भी होते
कुछ ऐसे पृष्ठ
जो पीड़ा से भीग
धुंधले हो चुके हों—
मैं उन्हें
निःशंक, निःसंकोच
चीर डालता,
और कुछ स्वर्णिम पलों को
फिर से मन में जोड़
अपनी दृष्टि से सजा पाता।
मेरे स्वप्नों की बिखरी किरणों में
जो चमकी थी कभी
विश्वास की कोई छोटी-सी चिंगारी,
काश उसे फिर से संजो पाता मैं
कल्पना की रेशमी डोर से—
फिर रचता कोई मधुर संवाद
जहाँ मैं होता नायक
अपने ही जीवन-नाटक का।
मैं लौटता
उन्हीं राहों पर
जहाँ किशोर मन की हँसी
अनायास बिखर जाती थी,
जहाँ पिता की हथेली पर
थमी चिंता
शब्दहीन आशीष बन जाती थी,
जहाँ चाँदनी
माथे पर
एक मौन संबल बन उतरती थी।
काश!
जीवन कोई कविता होता
जिसे मैं,
मन के भावों से
फिर-फिर रच पाता,
दुख की पंक्तियाँ मिटाकर
स्मृति की वीणा में सुख के स्वर भरता—
और कहता:
“देखो, यह मैं हूँ "कमळ" —
स्वयं अपने पथ का रचयिता।”
काश!
ज़िंदगी सचमुच
किताब होती...
जिसे एक बार नहीं,
हर बार
पुनः लिखा जा सकता!
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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