“दिव्य रश्मि” – तप, त्याग और एक आदर्श की जीवंत गाथा

सुनीता पाण्डेय, अध्यक्षा, पवनसुत सर्वांगीण विकास केंद्र
जब किसी विचार को आकार देने वाला मनुष्य उसके लिए स्वयं को विसर्जित कर दे, जब साधना केवल व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं बल्कि सामाजिक चेतना बन जाए, जब एक प्रयास अपने भीतर युगबोध, राष्ट्रबोध और धर्मबोध को समेटे हुए हो—तब वह प्रयास मात्र एक रचना नहीं, बल्कि एक "आंदोलन" बन जाता है।
“दिव्य रश्मि” पत्रिका ऐसा ही एक अद्वितीय सांस्कृतिक आंदोलन है, जो अपने 12वें स्थापना वर्ष में प्रवेश कर रहा है।
यह लेख केवल एक वर्षगाँठ का लेख नहीं, यह उस साधना और संघर्ष का शब्दचित्र है जिसे मैंने वर्षों से अपनी आँखों के सामने देखा, महसूस किया और जिया है। मैं स्वयं को लेखिका नहीं मानती, लेकिन इस यात्रा की सजीव साक्षी अवश्य हूँ।
प्रारंभिक प्रेरणा: एक बुझती लौ से प्रज्वलित दीप तक
“दिव्य रश्मि” आज भले ही एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक, सामाजिक और अध्यात्मिक पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित हो, परंतु इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। इस पत्रिका का बीजारोपण हुआ था 1984 में, जब हमारे पूज्य स्वसुर पंडित सुरेश दत्त मिश्र जी ने इसे प्रकाशित करना आरंभ किया था। दुर्भाग्यवश, समय और परिस्थिति के थपेड़ों ने उस प्रयास को कुछ वर्षों के बाद रोक दिया। परंतु वह लौ बुझी नहीं थी, वह केवल अंतराल में विश्राम कर रही थी।
वर्ष 2014, दिनांक 28 मई—वही तिथि जब इस पत्रिका का पुनर्जन्म हुआ, और वह भी पूर्ण आत्मबल और आदर्शवाद के साथ। इस बार, मार्गदर्शक की प्रेरणा को साकार रूप दिया उनके पुत्र और मेरे जीवनसाथी, डॉ. राकेश दत्त मिश्र ने।
व्यक्तिगत तप से सामाजिक दीप का निर्माण
पत्रिका के पुनः प्रकाशन की प्रक्रिया कोई साधारण निर्णय नहीं था। यह एक व्यक्ति का पूर्ण समर्पण था, वह भी तब जब न कोई सरकारी अनुदान था, न कोई विज्ञापनदाता, और न ही कोई स्थाई संपादकीय टीम।
डॉ. साहब ने इसे एक व्यक्तिगत उत्तरदायित्व, एक आध्यात्मिक दायित्व और एक सामाजिक संकल्प के रूप में लिया।
कई बार ऐसा हुआ कि घर के मासिक खर्चों में कटौती कर के कागज़, प्रिंटिंग और डाक खर्चों के लिए धन जुटाया गया। कई रातें जागकर अंक तैयार करना, लेखों को पढ़ना, संपादित करना और खुद डाक से भेजना—इन सबका साक्षी सिर्फ परिवार नहीं, वो पाठक भी हैं जिनके हाथों में हर माह “दिव्य रश्मि” की प्रति पहुँची।
साहित्यिक संबल: जब शब्दों ने आत्मा को छुआ
इस यात्रा में कई साहित्यिक और सांस्कृतिक दिग्गजों का भी मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।
प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव जी ने एक बार कहा था:
"‘दिव्य रश्मि’ केवल एक नाम नहीं, यह वह विचार है जो अंधकार में भी प्रकाश की रेखा खींचता है। यह वह संकल्प है, जो सनातन धर्म की अक्षुण्ण ज्योति को युगों तक जलाए रखने का व्रत लिए हुए है। इसे कभी बंद नहीं होने देना चाहिए।"
यह वाक्य केवल प्रशंसा नहीं था, यह एक आदेश, एक जीवन दर्शन बन गया। डॉ. साहब के लिए यह उस दिव्य रेखा जैसा था जिसे पार नहीं किया जा सकता, केवल आगे बढ़ाया जा सकता है।
✦ संघर्ष की वह लौ जो कभी बुझी नहीं
मैंने बहुत करीब से देखा है कि हर महीने की तैयारी, लेखों का चयन, डिज़ाइनिंग, छपाई, डाक से वितरण, सब कुछ एक व्यक्ति के कंधों पर होता है। जहाँ एक ओर आर्थिक अभाव है, वहीं दूसरी ओर समय और सहयोग का अभाव भी कम नहीं। फिर भी डॉ. साहब हर अंक को पूरी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण के साथ तैयार करते हैं—जैसे कोई साधक हर दिन दीप जलाता है ताकि कोई घर अंधकार में न रहे।
कई बार मैंने देखा कि घर की आवश्यकताओं से पहले पत्रिका की छपाई को प्राथमिकता दी गई। कई बार भोजन की थाली ठंडी हो गई, लेकिन "दिव्य रश्मि" का पेज गर्मजोशी से सजता रहा। यह सब देखना आसान नहीं होता, लेकिन जब उद्देश्य जनजागरण और धर्मरक्षा हो, तो निजी सुख-दुख गौण हो जाते हैं।
न कोई आर्थिक सहायता, न शारीरिक सहयोग
आज के समय में जब अधिकांश प्रकाशन विज्ञापनों और फंडिंग पर निर्भर होते हैं, “दिव्य रश्मि” पूर्णतः निःस्वार्थ भावना से चलाई जा रही है। न कोई संस्था सहायता देती है, न ही किसी बड़ी कंपनी का समर्थन है। डॉ. साहब को न तो लेख भेजने में कोई मदद करता है, न डिजाइनिंग में, न ही वितरण में। सब कुछ वे स्वंय करते हैं, अकेले, बिना किसी अपेक्षा के।
यह अकेलापन कई बार पीड़ा देता है, लेकिन उसी से एक अद्भुत शक्ति भी उपजती है—एक ऐसी शक्ति जो “दिव्य रश्मि” को केवल जीवित नहीं रखती, बल्कि हर महीने उसे और अधिक तेजस्वी, और अधिक प्रभावशाली बनाती है।
✦ एक जीवन, एक संकल्प
डॉ. राकेश दत्त मिश्र जी के लिए यह पत्रिका केवल एक प्रकाशन नहीं, बल्कि जीवन का संकल्प है। उन्होंने इसे कभी "प्रॉफिट" के लिए नहीं, बल्कि परमार्थ के लिए शुरू किया था—और अब यह जीवन की तपस्या बन चुकी है। यह कार्य न किसी पुरस्कार के लिए है, न सम्मान के लिए, बल्कि धर्म, राष्ट्र और समाज के लिए है।
उद्देश्य और आयाम: केवल धार्मिक नहीं, सम्पूर्ण जीवन-दृष्टि
“दिव्य रश्मि” केवल एक धार्मिक पत्रिका नहीं है। इसके चार प्रमुख स्तंभ इसे विशिष्ट बनाते हैं—शिक्षा, समाज, धर्म और राजनीति।
हर अंक में:
· धार्मिक व आध्यात्मिक लेख होते हैं, जो जीवन-दर्शन, साधना, पुराण कथाओं में छिपे वैज्ञानिक तथ्यों को उजागर करते हैं।
· शैक्षिक सामग्री होती है, जो विद्यार्थियों, शिक्षकों व अभिभावकों के लिए अत्यंत लाभकारी होती है।
· सामाजिक विषयों पर विचारोत्तेजक लेख होते हैं—नारी सशक्तिकरण, बाल संरक्षण, पर्यावरण, स्वच्छता आदि पर।
· राजनीतिक विमर्श होता है जो नकारात्मक आलोचना नहीं, अपितु जनजागरूकता और नीति विश्लेषण की सकारात्मक भूमि तैयार करता है।
डिजिटल युग में सार्थक उपस्थिति
जहाँ डिजिटल माध्यमों ने पारंपरिक पत्रिकाओं को संकट में डाल दिया है, वहाँ “दिव्य रश्मि” ने अपनी डिजिटल उपस्थिति से नई ऊंचाई प्राप्त की है।
· YouTube https://www.youtube.com/@DivyaRashmiNews,
· Website www.divyarashmi.com
· WorldWide Web पर लेखों की उपलब्धता,
· और PDF स्वरूप में डिजिटली वितरण—ये सब आधुनिक युग के साथ तालमेल बैठाने की सफल कोशिशें हैं।
आज भी अपेक्षा शेष है...
हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि अभी भी “दिव्य रश्मि” को वह सहयोग, संसाधन और समर्थन नहीं मिला जिसकी यह वास्तव में अधिकारी है। जब एक सशक्त समाज निर्माण का कार्य हो रहा हो, तो क्या यह केवल एक व्यक्ति की जिम्मेदारी है?
आज मैं, एक पत्नी, एक साक्षी, और एक स्त्री होने के नाते समाज से अपील करती हूँ कि इस रचनात्मक प्रयास को केवल देखें नहीं, जुड़ें, सहयोग करें। “दिव्य रश्मि” किसी एक व्यक्ति की नहीं, हम सबकी धरोहर है।
पाठकों का परिवार: केवल सदस्य नहीं, साधक
आज “दिव्य रश्मि” के पाठक केवल उपभोक्ता नहीं, वह सह-यात्री हैं।
· वृद्धजन इसे अपने जीवन का अनुभव मानते हैं,
· युवावर्ग इसे मार्गदर्शन के रूप में पढ़ता है,
· महिलाएँ इसे आध्यात्मिक व मानसिक ऊर्जा के स्रोत के रूप में अपनाती हैं,
· और बच्चे इसे धर्म व संस्कृति से जोड़ने वाले पहले साहित्य के रूप में।
संपादकीय: जो हर माह नई दृष्टि देता है
डॉ. राकेश दत्त मिश्र द्वारा लिखित संपादकीय भावनात्मक, बौद्धिक और सामाजिक रूप से प्रासंगिक होते हैं।
वे न केवल समस्याओं को उजागर करते हैं, बल्कि समाधान का मार्ग भी सुझाते हैं। यह संपादकीय जनमत को सकारात्मक दिशा देने वाला 'दिशा सूचक' बन चुका है।
विशेष स्तंभ: जो ज्ञान का भंडार हैं
प्रत्येक अंक में नियमित स्तंभ होते हैं:
· व्रत त्योहार की विस्तृत जानकारी,
· रवि शेखर सिंहा जी का सामाजिक और धार्मिक आलेख,
· दिव्य डेस्क में पाठकों के पत्र और सुझाव,
· ज्योतिष, आयुर्वेद, योग, ध्यान, तंत्र, पुराण विज्ञान आदि पर आलेख।
अपील: यह केवल एक परिवार की नहीं, समाज की धरोहर है
आज जबकि पत्रिका 12वें वर्ष में प्रवेश कर रही है, मुझे गर्व है, परंतु चिंता भी है—क्या यह पत्रिका हमेशा इसी तरह चलती रहेगी?
जब तक यह एक व्यक्ति के कंधों पर है, तब तक इसकी गति सीमित हो सकती है। अब समय है कि समाज इस आत्मीय प्रयास को अपना समझे, इसके साथ जुड़े, और हर प्रकार से इसे सहयोग प्रदान करे।
· क्या समाज को ऐसे एकमात्र सनातन-सांस्कृतिक पत्र को संरक्षित रखने में रुचि नहीं होनी चाहिए?
· क्या एक व्यक्ति के कंधों पर यह उत्तरदायित्व छोड़ देना न्याय है?
भविष्य की आशा: रश्मियाँ और भी फैलें
हमारा सपना है कि “दिव्य रश्मि” न केवल भारत में, बल्कि विश्वभर में सनातन संस्कृति के संवाहक के रूप में स्थापित हो।
· हर जिले में इसकी उपलब्धता हो,
· हर शिक्षण संस्थान में इसका पाठन हो,
· और हर युवा इसे दिशा निर्देश के रूप में पढ़े।
निष्कर्ष: जब तक धर्म है, तब तक "दिव्य रश्मि"
जब उद्देश्य पवित्र हो, साधना निर्मल हो और साधक ईमानदार हो, तब ईश्वर स्वयं सहयोगी बनते हैं। “दिव्य रश्मि” आज केवल एक पत्रिका नहीं, एक यज्ञ है—जिसमें समर्पण की आहुति देकर डॉ. राकेश दत्त मिश्र जैसे व्यक्तित्व ने संस्कृति को जीवंत रखा है।
मैं पूरे हृदय से उन्हें, उनकी साधना को, और इस पत्रिका को नमन करती हूँ। साथ ही सम्पूर्ण पाठक समाज से आग्रह करती हूँ—
"अब यह केवल पढ़ने का नहीं, इसे संरक्षित रखने और बढ़ाने का समय है।"
अंत में, मेरा विश्वास है कि जिस प्रेरणा, श्रद्धा और आत्मबल से यह पत्रिका चल रही है, वह ईश्वरीय संकल्प है। जब उद्देश्य निर्मल हो, तो मार्ग स्वयं बनते हैं। दिव्य रश्मि एक ज्योति है – और यह तब तक जलती रहेगी, जब तक एक भी हृदय में धर्म, संस्कृति और राष्ट्र के प्रति प्रेम जीवित है।
हृदय से धन्यवाद और "दिव्य रश्मि" को अनंत शुभकामनाएँ! ✦
✍️ सुनीता पाण्डेय
अध्यक्षा, पवनसुत सर्वांगीण विकास केंद्र
पटना, बिहार
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