भटकते मजदूर
डॉ उषाकिरण श्रीवास्तवबड़े सपने सजाकर आए थे
एक दिन तुम्हारे द्वार,
सुना था कि शहर में मिल रहा
बिन मांगे ही रोजगार।
हमारे हीं पशीने से तुम्हारा
बढ़ गया है व्यापार,
आज तेरे हीं कारण हो गये
हम सब बहुत लाचार।
सोंचा था कि अपने बच्चों को
रखेंगे नहीं अनपढ़,
पढ़ायेंगे -लिखायेगें हमारा
होगा सपनों का संसार।
भयंकर त्रासदी में तुमने अपना
दिखा दिया औकात,
न कोई रास्ता दिखता
न दिखता कोई भी आशार।
भूखें-प्यासे है बच्चें
सभी के पांव में छाले,
मन में है यही संकल्प
कब पहुंचेंगे हम अपने द्वार।
राहों में ठोकर खा रहे हैं
आज हम मजदूर,
यादों में बस अब रह गया है
अपना हीं घर-परिवार ।
मुजफ्फरपुर, बिहार
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