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ऐ कुर्सी पर बैठने वालों ,

ऐ कुर्सी पर बैठने वालों ,

श्रम को बदहाल न कर ।
रग रग में भरा पड़ा श्रम ,
उसे लूट मालामाल न कर ।।
लूट से बन तू खरबपति ,
एक आह उनकी काफी है ।
ईश भी काम आनेवाले नहीं ,
न तेरे हेतु कोई ये माफी है ।।
मारा जो श्रमिकों का हक ,
एक आह में पस्त हो जाएगा ।
दिल दुखाना नहीं दुखियों का ,
तू शीघ्र ही ध्वस्त हो जाएगा ।।
रोम रोम में उसके श्रम भरा है ,
तो रोम रोम में भरा शाप भी ।
उनके एक ही आह में बस ,
जिंदा लाश बनोगे आप भी ।।
जहाॅं झूल रहे आगे पीछे बंदे ,
अब मक्खियाॅं भनभनाऍंगी ।
श्रम हो शारीरिक मानसिक ,
श्रम निष्ठा ये बहुत सताऍंगी ।।
न कर श्रमिक की आलोचना ,
श्रमिक कर्म से तुम बढ़े हुए हो ।
पूछनेवाला नहीं पूर्व में तुमको ,
श्रमिक श्रम से तुम कढे़ हुए हो ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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