एक सामाजिक कार्यकर्ता से उपसंपादक तक: दिव्य रश्मि की यात्रा मेरे दृष्टिकोण से

लेखक: सुबोध सिंह राठौड़, सामाजिक कार्यकर्ता एवं उपसंपादक, दिव्य रश्मि
समय की धारा में बहते हुए कई बार जीवन ऐसे मोड़ पर ले आता है, जहाँ आप यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि क्या यह मेरी नियति में था या किसी और की प्रेरणा ने मुझे वहाँ पहुँचाया। मेरी यात्रा दिव्य रश्मि पत्रिका के उपसंपादक बनने की भी कुछ ऐसी ही कहानी है। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में समाज सेवा करते हुए, मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखूँगा, वह भी एक ऐसी पत्रिका के माध्यम से जो धर्म, संस्कृति, सनातन मूल्यों और राष्ट्रभक्ति के लिए समर्पित हो।
संबंधों की शुरुआत: एक सामाजिक यायावर की भूमिका
वर्ष 2013-14 के आसपास की बात है, मैं अपने सामाजिक संगठन से संबंधित लेखा और ऑडिट के कार्यों के लिए पटना में डॉ. राकेश दत्त मिश्र जी के पास नियमित रूप से जाता था। वे एक विद्वान अर्थशास्त्री, कर सलाहकार और समाज के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्ति हैं। हम दोनों अलग-अलग संस्थाओं के माध्यम से समाज सेवा कर रहे थे लेकिन हमारे कार्यों का उद्देश्य एक था — राष्ट्र और समाज की सेवा।
इन्हीं दिनों अचानक एक दिन डॉ. साहब ने कहा, “सुबोध भाई! मैं पटना साहिब से लोकसभा चुनाव लड़ने की योजना बना रहा हूँ।” मैंने कहा, “डॉ. साहब! आप कहें, हम पूरी तरह आपके साथ हैं।” यही वह क्षण था जब हमारा संबंध केवल कर सलाहकार और क्लाइंट का न रहकर एक मिशन का रूप लेने लगा।
दिव्य रश्मि की पुनरुत्थान की चिंगारी
एक दिन हम तीन लोग बैठे थे — डॉ. साहब, उनके पूज्य पिताजी श्री सुरेश दत्त मिश्र जी और मैं। तभी कुछ पत्रकार मिलने आए। चर्चा के दौरान पत्रकारिता के वर्तमान स्वरूप पर चर्चा शुरू हुई। डॉ. साहब ने टिप्पणी की — “आजकल सभी पत्रिकाओं ने अपना आवरण तो बदल लिया है, लेकिन अंदर की आत्मा — धर्म और संस्कृति — पूरी तरह से गायब हो चुकी है।”
तभी चाचाजी ने एक भावुक स्मरण किया — “एक समय था जब धर्म आधारित पत्रिका दिव्य रश्मि का प्रकाशन हम करते थे, परंतु सरकारी सेवा में होने के कारण 1984 में इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। अगर तुम लोग चाहो तो इसका पुनः प्रकाशन शुरू किया जा सकता है।”
यह बात मेरे हृदय को छू गई। मैंने तत्काल कहा, “सर, यह एक अद्भुत विचार है। मैं आपके साथ हूँ।” उसी क्षण से मैंने तय कर लिया कि यदि मुझे किसी मंच के माध्यम से सनातन धर्म और राष्ट्र को कुछ देने का अवसर मिले, तो इससे अच्छा माध्यम और क्या हो सकता है।
पुनः स्थापना की प्रक्रिया: एक नया संकल्प
डॉ. साहब ने तुरंत दिव्य रश्मि के पुनः निबंधन की प्रक्रिया शुरू की। मई 2014 में पत्रिका का नाम अनुमोदित हो गया। सावरकर जी से प्रेरणा लेते हुए डॉ. साहब ने 28 मई — वीर सावरकर की जयंती — को पत्रिका प्रारंभ करने की इच्छा जताई।
हमने लगातार लेखकों, संतों, समाजसेवियों से संपर्क कर-करके आलेख संकलित किए। यह काम बेहद कठिन था क्योंकि लोग संशय में थे — “क्या ये पत्रिका टिक पाएगी?”, “क्या ये बस एक चुनावी स्टंट है?”, लेकिन हमने बिना किसी को जवाब दिए, अपने काम से उन्हें उत्तर देने की ठानी।
पत्रिका का जन्म: आत्मा से प्रकाशित एक ज्योति
जब सामग्री संकलित हो गई, तब पत्रिका को डिज़ाइन करने प्रेस जाना था। डॉ. साहब एक मुस्लिम ओपरेटर से मिले, लेकिन उन्होंने स्पष्ट कह दिया — “मैं यह पत्रिका स्वयं तैयार करूँगा। यह धर्म आधारित पत्रिका है और इसमें किसी मुस्लिम के हाथ का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।”
उन्होंने स्वयं कंप्यूटर पर डिज़ाइनिंग की, टाइपिंग की, और एक-एक पृष्ठ को साकार रूप दिया। हम लोग अजय दुबे जी के प्रेस में गए और दिव्य रश्मि का पहला अंक छप कर आया।
लोकार्पण और आलोचना: संघर्षों की कसौटी
जब पत्रिका का लोकार्पण हुआ, तो कुछ लोगों ने उपहास करते हुए कहा — “एक अकाउंट का विद्यार्थी क्या पत्रिका निकालेगा?”, “इसके पिता जी के पास तो पूरी साहित्यिक टीम थी, वो भी नहीं चला पाए, अब ये क्या चला पाएंगे?”
ये ताने आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं। लेकिन शायद ये शब्द ही हमारे लिए प्रेरणा बन गए। दिव्य रश्मि न रुकी, न थमी। आलोचना के तमाचों को जवाब बनाकर हमने प्रकाशन की वह यात्रा शुरू की, जो आज बारहवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है।
लगातार प्रकाशित 144 अंक: एक समर्पण गाथा
डॉ. राकेश दत्त मिश्र जी ने बिना किसी सहयोग, बिना किसी सरकारी अनुदान, बिना किसी विज्ञापन एजेंसी की सहायता के लगातार 144 अंक प्रकाशित किए हैं। यह केवल परिश्रम नहीं, यह तपस्या है। हर अंक में राष्ट्र, धर्म, समाज, पर्यावरण, महिलाओं और बच्चों के उत्थान से जुड़ी विषयवस्तु होती है।
हमने सच्चे अर्थों में “पत्रकारिता को धर्म से जोड़ने” का कार्य किया है। जब मीडिया केवल सनसनी फैलाने में लगी थी, तब दिव्य रश्मि हर अंक में “सत्य” और “संस्कार” को स्थान दे रही थी।
मेरा लेखन, मेरी पहचान
धीरे-धीरे मैं भी आलेखों के संपादन और संग्रहण में जुड़ गया। लेखों की गुणवत्ता, भाषा, भाव और सामाजिक संदेश की स्पष्टता पर ध्यान देने लगा। धीरे-धीरे मैं स्वयं भी लिखने लगा। मुझे दिव्य रश्मि ने एक नई पहचान दी — एक लेखक, संपादक और विचारक की। आज जब मैं किसी सभा में जाता हूँ और लोग कहते हैं — “अरे आप तो दिव्य रश्मि के उपसंपादक हैं” — तो वह क्षण मेरे लिए गर्व से भरा होता है।
12 वर्षों की उपलब्धियाँ: संक्षेप में
- 144 मासिक अंक बिना किसी सरकारी सहयोग के प्रकाशित
- 1000+ आलेख, कविताएँ, विचार व भाषण संग्रहित और प्रकाशित
- 200 से अधिक लेखकों को मंच प्रदान किया
- 50+ सामाजिक विषयों पर विशेषांक
महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण जागरूकता, सनातन संस्कृति, और शिक्षा पर विशेष योगदान
हजारों पाठकों की सकारात्मक प्रतिक्रियाएं
दिव्य रश्मि का भविष्य: अगली पीढ़ी के लिए संकल्प
हमारा लक्ष्य अब केवल लेखन और प्रकाशन तक सीमित नहीं है। दिव्य रश्मि को डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म, यूट्यूब चैनल, और पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में विस्तारित करना है। हम आने वाली पीढ़ियों को बताना चाहते हैं कि धर्म और राष्ट्रवाद कोई पिछड़ी मानसिकता नहीं, बल्कि हमारी पहचान, प्रेरणा और शक्ति का स्रोत है।
जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो एक ही सवाल अपने आप से पूछता हूँ — “मैं, एक सामाजिक कार्यकर्ता, कैसे उपसंपादक बन गया?” शायद इस सवाल का उत्तर यही है — जब आप सच्चे मन से समाज और धर्म की सेवा करना चाहते हैं, तो ईश्वर आपको उचित माध्यम और योग्य पथ प्रदर्शक देता है। मेरे लिए दिव्य रश्मि वह माध्यम है और डॉ. राकेश दत्त मिश्र जी वह पथ प्रदर्शक।
आज जब हमारी पत्रिका अपने 12वें वर्ष में प्रवेश कर रही है, मैं उन सभी आलोचकों का आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने हमारे समर्पण को चुनौती दी, क्योंकि उन्हीं की आलोचना ने हमें और मजबूत बनाया। और मैं आभार व्यक्त करता हूँ अपने मार्गदर्शक डॉ. साहब का, जिन्होंने एक अंक लेखन को तपस्या का रूप दिया और हमें भी उस यज्ञ में सहभागी बना दिया।
जय भारत, जय सनातन, जय कलम!
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