"दिव्य रश्मि: एक सांस्कृतिक दीपशिखा, साहित्य और सेवा का संगम":- डॉ. ऋचा दुबे
आज के डिजिटल और व्यावसायिक दौर में जब साहित्य को सोशल मीडिया की सतही लहरें निगल रही हैं, ऐसे समय में एक मासिक पत्रिका "दिव्य रश्मि" ने न केवल साहित्य को जीवित रखा है, बल्कि उसे जन-जन तक पहुँचाने का पुण्य कार्य किया है। यह पत्रिका मात्र छपी हुई सामग्री नहीं है, यह एक विचारधारा है—एक आंदोलन जो सेवा, संस्कार और सनातन मूल्यों को लेकर अग्रसर है।
डॉ. ऋचा दुबे, पेशे से एक चिकित्सक और हृदय से एक कवयित्री, अपने अनुभवों के माध्यम से इस पत्रिका की आत्मा को प्रकट करती हैं। यह समीक्षात्मक आलेख उन्हीं भावनाओं और अनुभवों को शब्द देता है।
पहली मुलाकात: सोशल मीडिया से आत्मिक संपर्क तक
कुछ वर्ष पूर्व जब डॉ. ऋचा दुबे ने दिव्य रश्मि का नाम सोशल मीडिया पर देखा, तब यह उनके लिए सिर्फ एक नाम था। एक कवयित्री होने के नाते वे अपने विचारों के लिए एक मंच की तलाश में थीं, जहाँ न केवल उनके शब्दों को स्थान मिले, बल्कि वे एक उद्देश्यपूर्ण साहित्यिक वातावरण का हिस्सा बन सकें।
यह जिज्ञासा उन्हें पत्रिका के संपादक डॉ. राकेश दत्त मिश्र तक ले गई। उन्होंने कुछ अंक मंगवाए और उन्हें पढ़कर ऐसा लगा मानो वर्षों से जिस आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संबल की तलाश थी, वह इस पत्रिका के रूप में सामने है। यह एक साधारण पत्रिका नहीं, बल्कि आत्मा को स्पर्श करने वाली अनुभूति थी।
एक साहित्यकार के लिए मंच: सृजन का सम्मान
अपने अनुभव साझा करते हुए डॉ. दुबे कहती हैं कि उन्होंने जब अपनी रचनाएँ संपादक महोदय को भेजीं तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि बिना किसी विलंब के उनकी रचनाएँ प्रकाशित कर दी गईं। जहाँ आज बड़े-बड़े साहित्यिक मंचों पर नए लेखकों को उपेक्षा का सामना करना पड़ता है, वहीं दिव्य रश्मि में नवोदित साहित्यकारों को न केवल प्रोत्साहन मिलता है, बल्कि उन्हें आत्मविश्वास भी मिलता है।
जब उन्होंने पूछा कि "आपने हमारी रचनाएँ इतनी सहजता से क्यों प्रकाशित की?" तो डॉ. मिश्र का उत्तर था,
“मैं हर नए साहित्यकार को मंच देना चाहता हूँ, क्योंकि सोशल मीडिया के शोर में साहित्य का स्वर दबता जा रहा है।”
यह भावना ही दिव्य रश्मि को बाकियों से अलग बनाती है।
सामग्री की गहराई: ज्ञान, इतिहास और संस्कृति का संगम
पत्रिका में प्रकाशित सामग्री केवल मनोरंजन नहीं करती, बल्कि आत्मा को ज्ञान, भक्ति और चेतना के माध्यम से जाग्रत करती है। प्रत्येक अंक में निम्नलिखित प्रकार की सामग्री होती है:
इतिहास पर शोधात्मक लेख: विशेषकर भारतीय इतिहास के उन पहलुओं को सामने लाते हैं, जिन्हें मुख्यधारा की किताबों ने अनदेखा किया है।
धार्मिक-सांस्कृतिक आलेख: सनातन धर्म के सिद्धांतों, महापुरुषों की जीवनगाथाओं और त्योहारों की वास्तविकता को उजागर करते हैं।
काव्य खंड: नवोदित और वरिष्ठ कवियों की रचनाओं को समान सम्मान के साथ स्थान मिलता है।
समाजोपयोगी विचार: युवाओं, महिलाओं और बुजुर्गों के लिए मार्गदर्शक विचार।
स्वास्थ्य और जीवनशैली: आयुर्वेद, योग और मानसिक स्वास्थ्य पर लेख।
डॉ. दुबे स्वयं जब इतिहास संबंधी लेखों को पढ़ती हैं तो उनका मन प्रसन्न हो उठता है, क्योंकि ये लेख किसी कोरा पाठ नहीं, बल्कि आत्मबोध की ओर ले जाने वाली यात्रा हैं।
सेवा की भावना, व्यावसायिकता से परे
आज अधिकांश पत्र-पत्रिकाएँ विज्ञापन और बाजार के दबाव में कार्य करती हैं, लेकिन दिव्य रश्मि अपने आरंभ से ही किसी भी प्रकार की व्यावसायिकता से दूर रही है। संपादक डॉ. राकेश दत्त मिश्र इसे न पत्रकारिता समझते हैं, न व्यवसाय—बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक सेवा का माध्यम मानते हैं।
वे इसे आजीविका नहीं, जीवन-सेवा का कार्य मानते हैं। यही कारण है कि पत्रिका की आत्मा हर अंक में जीवित और जागृत दिखाई देती है।
पाठकों के साथ आत्मीय संबंध
दिव्य रश्मि के पाठक मात्र पाठक नहीं हैं, वे इसके सहभागी हैं, साधक हैं। एक पाठक द्वारा लिखे पत्र, काव्य या विचारों को जिस सम्मान और स्थान के साथ प्रकाशित किया जाता है, वह इसे एक परिवार का रूप दे देता है।
डॉ. दुबे की तरह हजारों पाठक इस पत्रिका से जुड़कर अपने विचारों को व्यक्त करने का मंच प्राप्त कर चुके हैं। इसका प्रत्येक अंक केवल पढ़ने योग्य नहीं, जीवन में उतारने योग्य होता है।
डिजिटल युग में एक लौ
आज जब लोग इंस्टाग्राम रील्स और व्हाट्सएप स्टेटस में उलझे हैं, तब दिव्य रश्मि जैसी पत्रिका एक लौ की भांति जल रही है। यह लौ धीमी सही, लेकिन निरंतर है। और यही निरंतरता उसे विशेष बनाती है।
इस पत्रिका ने वेब पोर्टल (www.divyarashmi.com) के माध्यम से भी अपनी उपस्थिति ऑनलाइन दर्ज की है, जो डिजिटल युग में इसकी प्रासंगिकता को और भी मजबूत बनाता है।
12वाँ स्थापना दिवस: एक महायात्रा का पड़ाव
आज दिव्य रश्मि अपना 12वाँ स्थापना दिवस मना रही है। यह केवल एक संख्या नहीं, बल्कि एक युग की यात्रा का पड़ाव है। यह उन असंख्य साहित्यकारों, पाठकों, शोधकर्ताओं और साधकों की आस्था का प्रमाण है, जिन्होंने इसे अपनी आत्मा से अपनाया।
डॉ. ऋचा दुबे की कामना इस दिन को शब्द देती है:
“यह केवल 12वाँ नहीं, 1200वाँ स्थापना दिवस मनाने की दिशा में पहला कदम हो।”
भविष्य की ओर: संभावनाएँ और आवश्यकताएँ
- यदि कुछ सुझाव इस पत्रिका के विकास हेतु दिये जाएँ, तो वे हो सकते हैं:
- ई-पत्रिका ऐप: आधुनिक युग के अनुरूप मोबाइल ऐप जहाँ पाठक पुराने अंक पढ़ सकें।
- वीडियो साक्षात्कार: नवोदित साहित्यकारों के परिचय और रचना पाठ।
- राष्ट्रीय साहित्य संगोष्ठियाँ: पाठकों और रचनाकारों के बीच संवाद।
- महिला विशेषांक: महिला लेखन को प्रोत्साहित करने हेतु विशेषांक का प्रकाशन।
- विद्यार्थियों के लिए प्रतियोगिताएँ: युवा पीढ़ी को जोड़ने हेतु।
निष्कर्ष: एक पत्रिका नहीं, संस्कृति का प्रहरी
दिव्य रश्मि केवल एक मासिक पत्रिका नहीं, बल्कि एक संस्कार, संस्कृति और साहित्य का प्रहरी है। इसमें न राजनीति की शोरगुल है, न बाजारवाद की चमक—यह शांत, गहरी, और दिव्य है।
डॉ. ऋचा दुबे जैसे हजारों पाठक इसका प्रमाण हैं कि आज भी ऐसा साहित्य जीवित है जो आत्मा को स्पर्श करता है, विचारों को बदलता है, और समाज को नई दिशा देता है। कामना है यह पत्रिका युगों-युगों तक प्रकाशित होती रहे, और इसकी रश्मियाँ भारत की सांस्कृतिक चेतना को आलोकित करती रहें।
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