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अगर मैं सुधर जाऊॅं तो यह जहाॅं स्वर्ग बने

अगर मैं सुधर जाऊॅं तो यह जहाॅं स्वर्ग बने

कौन काम संभव नहीं ,
ये मानव मन तन जाए ।
अगर मैं सुधर जाऊॅं तो ,
यह जहाॅं स्वर्ग बन जाए ।।
अपनी अपनी बारी ले ,
अपनी अपनी तैयारी ले ।
दृढ़ श्रद्धा व शक्ति लेकर ,
मन व हृदय से यारी ले ।।
संभव नहीं कोई काम ,
मन व हृदय यारी बिना ।
हृदय माने बात शीघ्र ही ,
मन न मनावन भारी बिना ।।
सिधर न जाऊॅं सुधरने में ,
तू ही बता मैं किधर जाऊॅं ।
उहापोह में पड़ा है जीवन ,
इधर जाऊॅं या उधर जाऊॅं ।।
मन होता बड़ा लोभी चंचल ,
हृदय को होता लोभ नहीं ।
चंचल मन गंभीर हो जाए ,
हृदय को कभी क्षोभ नहीं ।।
सारे काम ही नेक हो जाए ,
हृदय औ मन एक हो जाए ।
बन जाए यह जहाॅं भी स्वर्ग ,
दोनों मिल सुविवेक हो जाए ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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