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'गोपनीय जानकारी' बनी सीजफायर का आधार

'गोपनीय जानकारी' बनी सीजफायर का आधार

डॉ राकेश कुमार आर्य
जब हम केंद्र की मोदी सरकार की कथित युद्धविराम पर सहमति की बात कर रहे हैं तो कई बातों को स्मृति में रखना आवश्यक है। कथित युद्धविराम को भारत के लिए निराशा के रूप में परोसने से पहले हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि पाकिस्तान से जो देश के प्रधानमंत्री ने कहा था कि "भीतर घुस के मारेंगे " और उसे जिस प्रकार हमारी सेना ने करके दिखाया है, उससे एक बहुत बड़ा संदेश पाकिस्तान के लिए गया है कि भारत भीतर घुस के मारता है। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव है, जिसे पाकिस्तान गहराई से अनुभव कर गया है। उसे पता चल गया है कि यदि तुम भारत के सिंदूर के साथ खिलवाड़ करोगे तो भारत तुम्हारा क्या हाल कर सकता है ? इसी संदर्भ में हमें यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि भारत इस समय पाकिस्तान के एक आतंकवादी जनरल असीम मुनीर के निशाने पर था। जो स्वयं में एक जिहादी है। उसने भारत पर आक्रमण करने से पहले नमाज अदा की थी और कुरआन की उन आयतों का पाठ किया था, जिनमें काफिर और कुफ्र को मिटाने वालों पर अल्लाह के मेहरबान होने का उल्लेख है। इस प्रकार वहां के आतंकवादी जनरल ने भारत के साथ जो कुछ भी किया था, वह जिहाद की भावना से प्रेरित होकर किया था। असीम मुनीर के इस प्रकार के आचरण की निंदा अब पाकिस्तान में ही टीवी चैनलों पर की जा रही है। ऐसे सेना अध्यक्षों के नेतृत्व में कोई भी देश लफंगा और आतंकवादी देश ही बन सकता है, इसके तरीके कुछ भी नहीं। इसलिए पाकिस्तान अपने आचरण और व्यवहार में पूर्ण रूपेण लफंगा बन चुका था। जिसे अब भारत की सरकार और सेना ने सोचने पर विवश किया है।
कई लोग थे जो प्रधानमंत्री श्री मोदी के साथ राजनीतिक तौर पर इस युद्ध से पहले साथ नहीं थे। उन्होंने देश की राजनीतिक परिस्थितियों के दृष्टिगत 'मजबूरी' में यह निर्णय लिया कि वह देश की केंद्र सरकार के साथ खड़े होकर इस बात का समर्थन करते हैं कि सरकार और सेना पाकिस्तान के विरुद्ध जो कुछ भी करेगी, हम उस पर अपनी पूर्ण सहमति प्रदान करते हैं। अब यह सरकार पर निर्भर था कि वह पाकिस्तान के साथ कड़ाई से पेश आए। जब प्रधानमंत्री मोदी इस विषय पर निर्णय लेने में थोड़ा सा विलंब कर रहे थे, तभी भारत के विपक्षी दलों में से कई ने यह कहना आरंभ कर दिया था कि जब हम सब साथ हैं तो प्रधानमंत्री त्वरित निर्णय क्यों नहीं ले रहे हैं ? उस समय देश के कई राजनीतिक दल प्रधानमंत्री द्वारा निर्णय लेने में हो रहे कथित विलंब पर आलोचना कर रहे थे और जब निर्णय ले लिया गया तो फिर कई राजनीतिक मनीषी इस बात को लेकर चर्चा करते दिखाई दिए कि भारत को हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए। कई स्थानों पर इस बात को लेकर झंडा लहराए गए कि हम युद्ध नहीं चाहते। अब 'युद्ध' रुक गया है तो 'यही युद्ध न चाहने वाले' इस बात को लेकर विरोध करेंगे कि युद्ध किया क्यों नहीं गया ? पाकिस्तान से पूरा हिसाब होना चाहिए था। ऐसी सोच को आप क्या कहेंगे ?
केंद्र की मोदी सरकार ने अचानक कथित युद्धविराम पर अपनी सहमति प्रदान कर कितना सही किया और कितना गलत किया या ऐसा करने के लिए वह क्यों मजबूर हुई ? - इस पर कोई टिप्पणी करना अभी जल्दबाजी होगी। अभी बहुत कुछ स्पष्ट होना शेष हैं। लोगों के मन मस्तिष्क में कुछ प्रश्न इस समय कुलबुला रहे हैं । जैसे कि सिंधु जल संधि की स्थिति इस युद्धविराम के बाद क्या होगी ? इस पर भारत सरकार ने कह दिया है कि इस संधि को उस समय तक स्थगित रखा जाएगा जब तक पाक अधिकृत कश्मीर भारत को नहीं मिल जाता है, साथ ही पाकिस्तान उन आतंकवादियों को भारत को नहीं सौंप देता है जो भारत की क्षेत्रीय एकता और अखण्डता के लिए खतरे पैदा करते रहे हैं या आतंकवादी गतिविधियों में सम्मिलित रहकर भारत को अस्थिर करने का प्रयास करते रहे हैं।
इसी प्रकार का दूसरा प्रश्न है कि पाक अधिकृत कश्मीर में सक्रिय आंदोलन को हम किस प्रकार अपने पक्ष में ला सकते हैं ? तीसरा प्रश्न है कि 'बलूच लिबरेशन आर्मी' के आंदोलन से हम अपने राष्ट्रीय हितों को साधते हुए किस प्रकार का लाभ उठा सकते हैं ? वास्तव में इन दोनों प्रश्नों पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।यह सब अभी देखने की बातें हैं। यदि आज किसी ' बड़े और अप्रत्याशित विनाश' से बचने के लिए सरकार ने इस युद्ध विराम पर अपनी सहमति प्रदान कर कल को पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेने और पाकिस्तान में बलूचिस्तान को अलग करवाने में सफलता प्राप्त कर ली तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। महाभयंकर विनाश की अपेक्षा बहुत सधे हुए दृष्टिकोण से देश और दक्षिण एशिया को बचाने के लिए तब इस युद्ध विराम के समझौते को ' विवेकपूर्ण ' कहा जा सकेगा।
इस युद्धविराम के संदर्भ में हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि पाकिस्तान एक युद्धोन्मादी देश है । उसका वर्तमान नेतृत्व नपुंसक है और सेना उसके पीछे खड़ी हुई उसे भयभीत कर रही है। वह भारत से भी डर रहा था और अपनी सेना से भी डर रहा था। पाकिस्तान का वही ' मुगलिया स्टाइल' वाला इतिहास है जो हिंसाग्रस्त राजनीति का शिकार रहा है। इस देश में शासक बनने के बाद लोग अधिक भयभीत होते हैं, जबकि भारत में शासक बनने पर लोग सुरक्षित हो जाते हैं।
इसका अर्थ है कि पाकिस्तान में आतंकवादियों का बोलबाला रहता है। इसलिए कोई भी प्रधानमंत्री न्यायसंगत बात नहीं कह पाता। वहां का वर्तमान नेतृत्व अपनी सीमाओं को जानता है। वह यह भी भली प्रकार जानता है कि यदि उसने थोड़ा सा भी भारत के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया तो उसका अंजाम क्या होगा ? उससे यह भी अपेक्षा की जा सकती है कि वह भारत के विरुद्ध परमाणु बम के प्रयोग तक की बात ना सोचे, परन्तु जिहादियों के साथ मिलकर सरकार के पीछे खड़ी सेना वहां की सरकारों को ऐसा कभी करने या सोचने देगी, इसमें संदेह है। जिहादियों, आतंकवादियों और पाकिस्तान की सेना के लिए भारत काफिरों का देश है। पाकिस्तान में राजनीति के पीछे सदा सक्रिय रहे इस अवैधानिक, अनैतिक और दानवीय गठबंधन की मान्यता है कि यदि काफिरों के विरुद्ध जिहाद के नाम पर परमाणु बम का भी प्रयोग किया जा सके तो कर लेना चाहिए।
इस पर प्रधानमंत्री मोदी के आलोचक कह सकते हैं कि यदि पाक हमारे देश के विरुद्ध परमाणु बम का प्रयोग करता है तो हमारे पास भी तो परमाणु बम है । हम भी उसे निपटा सकते थे । माना कि हमारा भारी विनाश होता, परन्तु हम तो उसे सदा के लिए ही समाप्त कर देते । यह तर्क सुनने और देने में अच्छा लगता है पर इसकी अपनी सीमाएं हैं। यदि पाकिस्तान हमारे देश के किसी भी शांत क्षेत्र में परमाणु बम गिराकर करोड़ों लोगों को मार डालता और उसके पश्चात हम पाकिस्तान को मिटाने के लिए आगे बढ़ते तो हमारे गुजरात, राजस्थान, पंजाब, जम्मू क्षेत्र सहित उन सारे सीमावर्ती क्षेत्रों में भी महाभयंकर तबाही मचती जो भारत के भाग हैं। इस प्रकार भारत पड़ोसी शत्रु देश को निपटाते समय अपने लोगों का भी ' हत्यारा' बन सकता था। दूसरी बात जब पाकिस्तान में हम परमाणु बम गिराएंगे तो हिमालय पर्वत के हिम ग्लेशियरों का पिघलना भी निश्चित है। जिससे उत्तर भारत में महाभयंकर बाढ़ आनी निश्चित है। जिससे सारे उत्तर भारत के लिए गंभीर संकट खड़ा हो सकता है । इस प्रकार जहां दक्षिण भारत में परमाणु बम से तांडव मचता , वहीं उत्तर भारत में महाभयंकर प्रलय की स्थिति अत्यंत विकट होनी निश्चित थी। इसलिए स्थिति को बिगाड़ते बिगाड़ते वहां तक ले जाना उचित नहीं है, जहां हम लगभग प्रलय की सी अवस्था में पहुंच जाएं । विश्व के अधिकांश देश यही चाहते हैं कि भारत अप्रत्याशित घटनाओं का शिकार होकर समाप्त हो जाए, परंतु क्या कोई जिम्मेदार सरकार भी यह चाहेगी कि मेरा देश इस प्रकार की विषमताओं और संकटों से जूझते-जूझते विनाश के कगार पर पहुंच जाए ?
अमेरिकी राष्ट्रपति जेड वेंस ने भारत के प्रधानमंत्री को ' अत्यंत गोपनीय जानकारी' देकर युद्ध विराम के लिए तैयार किया। यद्यपि वह ' अत्यंत गोपनीय जानकारी' अभी स्पष्ट नहीं की गई है, परंतु उसका संकेत पाकिस्तान द्वारा युद्ध को परमाणु युद्ध में बदलने की तैयारी के रूप में देखा जा रहा है। इसके अतिरिक्त ओआईसी देश भी भारत-पाकिस्तान के बढ़ते तनाव को गंभीरता से देख रहे थे, उनका निर्णय किधर को आएगा , यह स्पष्ट नहीं था। इस संगठन ने पाकिस्तान के खिलाफ भारत के लगाए गये आरोपों को "निराधार" बताते हुए कह दिया था कि इससे दक्षिण एशिया में तनाव बढ़ रहा है। इसने अपनी हदों को पार करते हुए यह भी कहा कि "कश्मीर को आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित किया जा रहा है, जिसकी गारंटी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रासंगिक प्रस्तावों में दी गई है।" इस प्रकार के धमकी भरे प्रस्तावों ने स्पष्ट कर दिया था कि इस संगठन का भारत-पाक के तनाव के संदर्भ में क्या दृष्टिकोण हो सकता है ?
प्रधानमंत्री मोदी अपने मूल स्वभाव में युद्धप्रेमी तो हैं, परंतु युद्धोन्मादी नहीं हैं। हर वह चाहते हैं कि इतिहास उन्हें एक विकास पुरुष के रूप में स्मरण करे,न कि युद्धोन्मादी विनाश पुरुष के रूप में। इसी संकोच के कारण वह जीतते जीतते पीछे लौट आए। कदाचित यही 'सदगुण' भारत के इतिहास की वह परंपरागत विकृति है जो हमें कई बार जीतने के बाद भी वार्ता की मेज पर हरा देती है। आपके पास इसका तोड़ क्या है ?
फिलहाल हमें अपने देश के प्रधानमंत्री श्री मोदी को उनके साहसिक निर्णय और अपनी शास्त्री सेनाओं के पराक्रम की बधाई उन्हें देनी चाहिए।

( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं। )
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