शीतल , ठंढा , कूल

शीतल , ठंढा , कूल

सर्दी में हम गर्मी हैं ढूॅंढ़ते ,
गर्मी में शीतलता तलाश ।
धूप ताप से बेचैन हैं होते ,
शीतल जल बुझाए प्यास ।।
अति कभी न सहन होता ,
जाड़ा गर्मी या हो बरसात ।
अति से ही जीवन तड़पता ,
अति देता जीवन को मात ।।
शीतलता का खोज सदा है ,
जीवन को जो देता आराम ।
किंतु जीवन कृषि आधारित ,
कृषि बिन यह जीवन हराम ।।
कृषि है चाहती तीनों ऋतुऍं ,
तभी जीवन पाता शकुन है ।
तीनों में कोई कम हो जाता ,
जीवन हेतु वह अपशकुन है ।।
ग्रीष्म भी जीवन को जरूरी ,
तन को ताप उर्जा ये देता है ।
बाहर निकलना होता वर्जित ,
एक लू बहुत हमें विभेता है ।।
तन से बहुत पसीना बहता ,
तन का कचड़ा निकलता है ।
जितना अधिक करें परिश्रम ,
उतना ही पसीना चलता है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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