एक और महाप्राण कवि

एक और महाप्राण कवि

डॉ रश्मि मिश्र
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री आधुनिक हिंदी साहित्य में एक ऐसा नाम हैं जिनकी चर्चा के बिना हिंदी साहित्य की विवेचना और आलोचना अधूरी रहेगी/ वस्तुतः छायावादोत्तर काल में आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जैसे महाकवि का होना हिंदी साहित्य जगत की एक अनोखी घटना थी/ अनोखी इसीलिए की जब सभी साहित्यकार छायावाद की काव्य प्रवृत्तियों से किनारा कर प्रगतिवादी कवि कहलाना पसंद कर रहे थे तब उस समय जानकी वल्लभ शास्त्री संस्कृत की विशाल सांस्कृतिक परंपरा और ज्ञान को आत्मसात कर अपनी ही धुन में निरत रहते हुए रचना के एक सर्वथा नूतन मार्ग को गढ़ते हुए आगे बढ़ रहे थे/ निश्चित रूप से यह मार्ग छायावाद का भी नहीं था लेकिन संस्कृत के विशाल साहित्य और दर्शन का प्रगाढ़ अध्ययन करने के कारण संस्कृत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रभाव उनके काव्य में सहज रूप से आया/ सुसंस्कृत और परिस्कृत भाव और भाषा, साहित्य में सत्यं शिवम् सुन्दरम् की स्थापना और नए से नए बिम्ब और प्रतीक, प्रकृति का मानवीकरण जैसे काव्य तत्वों ने उन्हें छायावाद के समीप रखा है/

शास्त्री जी के हिंदी लेखन का आरम्भ भी तो छायावादी कवियों की स्नेहिल छत्र-छाया में ही हुआ है/ शास्त्री जी संस्कृत मुक्तक काव्य की रचना तो १४-१५ वर्ष की आयु से ही करने लगे थे/ शास्त्री जी १९३५ में काशी विश्वविद्यालय के प्राच्य विभाग में अध्ययन रत थे / तब मात्र १९ वर्ष की आयु की अवस्था में उनका “काकली” नामक संस्कृत काव्यग्रंथ छप चुका था/ अपने ‘बालपिक’ की “काकली” सुनने के बाद महाकवि निराला, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी जी के साथ छात्रावास के उस कमरे में जा पहुंचे जहाँ शास्त्री जी अपनी चौकी पर बैठे चने का नाश्ता कर रहे थे/ उस प्रथम भेंट से लेकर अंतिम सांस तक निराला और शास्त्री जी एक दूसरे के पूरक बने रहे/ निराला का शास्त्री जी पर असीम स्नेह और आशीर्वाद था/ वे उनमें अपने तारुण्य की पहचान पाकर चकित थे/ हिंदी साहित्य में शास्त्री जी के लेखन का अवतरण निराला की प्रेरणा से ही हुआ/ शास्त्री जी लिखते हैं- “निराला मेरी चिन्ताधारा के विराम बन गए/ हलचल थी जो क्षिप्रता में ठहर गई थी/ स्वछंदता को छंद की खोज थी/ अहंकार नमस्कार हुआ चाहता था/ सांसों के गुंथे-गुंथे क्षण किसी विशवास शिला की रुपहली छाया में विश्वास ढूंढ रहे थे, निराला मिले/”
शास्त्री जी के लेखन में आरम्भ से ही प्रतिभा और पांडित्य का, पुरातन और नवीन का, शास्त्र और जीवन का अद्भुत मेल था/ उनकी दृष्टि में “शास्त्र जीवन गढ़ने के लिए हैं, शास्त्र गढ़ने के लिए जीवन नहीं है क्यूंकि जीवन स्वयं में अमूल्य है”/ यही कारण है की उनके गीतों में शास्त्रीय ज्ञान आरोपित नहीं हुआ है/ वह कवि की अन्तश्चेतना में घुलकर सरल-तरल भाषा में रस बन कर अभिव्यक्त हुआ है/ प्रगाढ़ अध्ययन ने मानव जीवन की रागात्मक प्रवृत्तियों, सुखदुःखात्मक अनुभूतियों को गहराई से समझाने और अभिव्यक्त करने में सहायता ही प्रदान की है/ कभी भी बोझिल नहीं बना है/ शास्त्री जी आजीवन किसी भी साहित्यिक वादों प्रवृतियों के घेरे में नहीं बंधे/ आत्मा में जब ज्ञान का प्रकाश भरा हो तो उसे कोई लालसा, क्षणिक प्रसिद्धि की कामना या कोई दायरा बांध नहीं सकता/ शास्त्री जी ने भी सदा आत्मा की गहराईयों में डूब कर भावोच्छवासों से प्रेरित हो कर स्वत: स्फूर्त ही रचना की है/ कवि को कई नामों से पुकारा गया है- “कविर्मनीषी परिभू: स्वम्भू:”/ ऐसा कवि काव्य गगन में उन्मुक्त विचरण करता है और कालजयी बनता है/ उसे बंधन स्वीकार नहीं/ आत्मा की आवाज़ सुनने वाला कवि सबसे बड़ा मानवतावादी होता है/ उसे सामाजिक विषमता और अन्याय सहनीय नहीं होता/ वह अपनी संतुलित, शिष्ट और कलात्मक भाषा में समाज पर व्यंग्य करता हुआ ऐसे उसका मार्मिक और यथार्थ चित्रण करता है-

“गई काटने गेंहू अम्मा

बाप गया बेगारी में है

खा अफ़ीम घर के कोने में

बच्चा पड़ा ख़ुमारी में है

क्या घर लौट कर लाएगा वह

अपने मुंह में बोल रहा

पकड़ा गया बेगारी में है

है जड़, उर डोल रहा है”

“मिट्टी के हाथी घोड़े

माँ देने आती लड़ पड़ते,

वे लड़के थे थोड़े,

बड़े बड़े थे उनके बाल

गोले गीले गंदे गाल,

हंस कर सहने के आदि थे

बाबू के बेटों के

घूंसे चप्पल कोड़े”

सामजिक शोषण के चित्रण में कैसी चित्रात्मक और सरल भाषा का प्रयोग किया गया है/ कहीं भाव और भाषा में स्तर का या अभिव्यक्ति की विद्रूपता या स्खलन नहीं है/

शास्त्री जी के गीतों का स्वर आध्यात्मिक एवं दार्शनिक है/ प्रेम के संयोग-वियोग के मार्मिक चित्र भी देखने को मिलते हैं/ प्रकृति तो सहचरी है/ कभी बादल बन कर तो कभी वन- गिर शिखर, नदी और पावस बाला का रूप धर कर हमेशा कवि के साथ रहती है/

अध्यात्म और दार्शनिक गीतों के कतिपय उदाहरण –

“मेरा नाम पुकार रहे तुम

अपना नाम छिपाने को,

पुरस्कार देते हो मुझको

अपना काम छिपाने का”

“नयन में प्राण में तुम हो,

गगन में गान में तुम हो

न इतन अभी रहा अंतर कि

मैं ही मैं या तुम ही तुम हो”

“यूँ तो हम तुम हिले-मिले थे,

एक डाल पर खिले-खुले थे

नाम मात्र का अंतर फिर भी,

तुम हो हाँ, मई हाय नहीं हूँ”

“बना पिंजड़ा घोंसला पंछी,

अब अनंत से कौन मिलाए

जिससे तू खुद बिछड़ा पंछी”



इन गीतों में कितनी सहजता से दार्शनिक तत्वों को दर्शाया गया है/

शास्त्री जी के गीतों में निराशा और अवसाद के स्थान पर आशा, विश्वास और प्रेरणा का स्वर ही प्रबल है/ और दुःख की अभिव्यक्ति भी हुए है/ किन्तु उनके व्यक्तिगत दुःख की अभिव्यक्ति भी समष्टिगत हो कर प्रकट हुई है/ पाठक इन गीतों को पढ़ता स्वयं की अनुभूतियों के कारण तादात्म्य स्थापित कर लेता है/

ये गीत आस्वाद्य बन जाते हैं/

“जिंदगी की कहानी रही अनकही,

दिन गुजरते रहे सांस चलती रही”

मेरे सागर के बीच तरी है,

दूर यहाँ से नील गगन

है दूर यहाँ से भूमि हरी,

मैं जग के मग से घुटा हुआ

असहाय अकिंचन लुटा हुआ,

मेरा अंतर सूना-सूना

हैं मेरी ऑंखें भरी-भरी”

किन्तु कविसचेत हो कर यह भी कहता है-

“मेरी ज्वाल लाल स्वर्णिम,

इसपर काली छाया न करो,

बादल तुम मेरे नभ में घिर-घिर फिर-फिर आया न करो”

“अजी! शिखर पर जो चढ़ना है तो कुछ संकट झेलो,

चुभने दो दो-चार खार,

जी भर गुलाब फिर ले लो!

तनिक रुको! क्यों हो हताश?

दुनिया क्या भला बाला है?

जीना भी एक कला है”

जिस प्रकार शास्त्री जी ने विविध भाव धरातल पर गीत लिखें हैं उसी प्रकार उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में उत्कृष्ट साहित्य रचा है/ सभी में उनके अनूठे व्यक्तित्व की झलक है/ नित नए प्रयोग, कथ्य एवं शिल्प में किये हैं/ गीतिनाट्य, नाट्य कथा, प्रबंध काव्य, नाटक, आत्मकथात्मक संस्मरण, संस्मरणात्मक आलोचना, निबंध, उपन्यास आदि/ संस्कृत के अलावा शास्त्री जी ने बंगला, उर्दू, अंग्रेज़ी भाषा साहित्य का भी प्रगाढ़ अध्ययन किया था/ निराला के साथ साथ रबिन्द्रनाथ टैगोर के भी प्रशंसक थे/ विवेकानंद एवं परमहंस को भी गहराए से जाना था तो दूसरी ओर शेली, कीट्स, मिल्टन को भी जगह जगह कोट करते थे/ उर्दू में शायरी की और हिंदी एवं संकृत में गज़लें लिखीं/ वस्तुतः शास्त्री जी का अध्ययन इतना प्रगाढ़ और प्रतिभा इतनी प्रगल्य थी कि इनकी गहराईयों को कोई पूरी तरह समझ न सका, समझा भी तो मान न सका/ शास्त्री जी शास्त्रीय ज्ञान और मौलिक चिंतन में निराला की ही भांति अद्वितीय थे/ अत: स्वाभिमान में भी स्वधर्मा थे/ पुरस्कार प्राप्ति हेतु कभी किसी संस्था या व्यक्ति के समक्ष कभी झुके नहीं, कभी काव्य धारा बदली नहीं, किसी राजनीतिक लाभ के लिए समझौता किया नहीं/

उनका यह स्वाभिमान कतिपय साहित्यकारों को रचा नहीं/ यही कारण है की हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में शास्त्री जी के कार्यों का उचित मूल्यांकन नहीं हुआ/ नाममात्र केलिए कहीं नाम का ही उल्लेख है/ बड़े-बड़े साहित्यिक संस्थानों से मिलने वाले पुरस्कारों में भी उनको अनदेखा किया गया क्योंकि वह स्वयं पुरस्कारों के लिए सिफारिश न कर सके/ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी राजनितिक पहुँच वाले लेखकों की रचनाएँ ही पढाई जाती हैं/ औसत दर्जे के कवि-लेखकों के नाम छात्र पढ़ते-रटते रहते हैं क्योंकि वे इतिहास में भी हैं और पाठ्यक्रम में भी/ किन्तु छात्रों की पीढियां उत्तम काव्य के अध्ययन से वंचित रह जाती हैं/ आचार्य श्री जानकी वल्लभ शास्त्री जैसे महाकवियों की रचनाएँ पूरे भारत वर्ष के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग में पढ़ाई जानी चाहिए तभी आने वाली पीढ़ीयां एक और महाप्राण कवि की रचा-प्रतिभा से अनुप्राणित हो पाएगीं/

इतिहास में अपने मूल्यांकन को लेकर आचार्य श्री कहीं न कहीं आशान्वित होंगे कि-

“उत्पस्यते कोSपि समानधर्मा कालोह्यं निरवधि विपुला च पृथिवी”



डॉ रश्मि मिश्र

७०१४६३९०८६

सुप्रभातं, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री पथ,

चतुर्भुजस्थान मंदिर, मुजफ्फरपुर, बिहार,

८०४२०१. 
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