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गर्मी, ग्रीष्म , तपन

गर्मी, ग्रीष्म , तपन

चल रही अब ग्रीष्म ऋतु ,
बढ़ गई अत्यधिक तपन ।
हुईं सूर्य की तीखी नजरें ,
बढ़ गई अत्यधिक जलन ।।
शरद से ग्रीष्म को जलन ,
सूर्यदेव बहुत ही तपा रहे ।
जैसे जीव किया हो जुर्म ,
सूर्यदेव बहुत ही सता रहे ।।
चल रही है ये लू भयंकर ,
बाहर निकलना है मोहाल ।
बढ़ी है ताप जलन इतनी ,
भयावह बना 2024 साल ।।
आम भी सारे गिर रहे हैं ,
जैसे खा रहे पवन पितापुत्र ।
प्रकोप बढ़ा प्रकृति का जैसे ,
दोनों ही हैं प्रकृति का सूत्र ।।
हवा बह रही है ऐसे जैसे ,
संता रहा हो भय मेरे अंदर ।
हवा में जलन बहुत भयंकर ,
चेहरे जल न हो जाऍं बंदर ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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