नव भोर हमें उठाता है

नव भोर हमें उठाता है

बीतते ही अंधेरी रात्रि ,
मुर्गा ये बांग लगाता है ।
देता जैसे प्रकृति संदेश ,
नव भोर हमें जगाता है ।।
जागो अब आलस त्याग ,
तेरे कर्म प्रत्यक्ष खड़ा है ।
हैं धर्म खड़ा उसके संग ,
तेरे सत्कर्म हेतु अड़ा है ।।
समय कहाॅं तेरे सोने का ,
घोड़े बेंच तू सोए पड़ा है ।
उठो प्यारे ऑंखें धो लो ,
समक्ष शीतल जल घड़ा है ।।
उठो बेटे शीघ्र तुम उठो ,
बहुत कुछ करना बाकी है ।
जीवन है ये चार दिनों का ,
कर लेने में ही चालाकी है ।।
बुला रही है तुम्हें धरा यह ,
बुला रही तुझे माॅं भारती ।
शीघ्र अब तुम नहा धो लो ,
माॅं भारती खड़ी ले आरती ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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