वैवाहिक बस्तुओं की प्रतीकात्मकता

वैवाहिक बस्तुओं की प्रतीकात्मकता

डॉ रामकृष्ण मिश्र

विवाह मानव जीवन का पैतृक ऋणात्मक दायित्व का आवश्यक अंग है। विवाह का मूल उद्देश्य सृष्टि के विकास में विधाता का सहयोग करना जिसमें वंश की बृद्धि होती रहे।
इसके लिए व्यक्ति सामाजिक सरोकारों से जुड़कर समाज में भावनात्मक तथा भौतिक समरसता कायम करने की दिशा में बहुत बड़ा सहयोगी बनता है। यह सहयोग वैयक्तिक या एक पक्षीय नहीं होता। प्राचीन काल से लेकर आज तक इसे एक यज्ञ के रूप में देखा जाता है। जिसमें कन्या दान का महत्व महादान या महायज्ञ की तरह है। महत्व हो भी क्यों न क्योंकि वर को विष्णु स्वरूप और कन्या को लक्ष्मी स्वरूपा मान कर विवाह सम्पन्न कराया जाता है।
समाज शास्त्रियों ने विवाह के आठ प्रकार बताए हैं जिनमें सर्वोत्तम ब्राह्म विवाह माना जाता है।
पुराकाल में ऋषि कन्याओं का विवाह वर ढूँढ कर नहीं होता था बल्कि कन्यार्थी स्वयं पहल करते थे, कन्या के पिता से कन्यादान का आग्रह करते थे। ऋषि कौण्डिल्य और सुदक्षिणा का विवाह प्रमाण है।
समय प्रवाह में रीतियाँ और धारणाएँ परिवर्तित होती गयीं। बाहरी आयातित संस्कृतियों के कारण भी कुछ मिश्रण संभव हुआ। समय के उपयोग की प्रक्रिया में भी बदलाव हुए आठ दिनों तक चलने वाले कार्य क्रम अब तीन दिन, दो दिन एक दिन मे सिमट जा रहा है। नहीं बदला है तो इस कार्य क्रम मे उपयोग में आने वाली वस्तुएँ जिनका न्यूनाधिक प्रयोग आवश्यक मान लिया जाता है।
उन्हीं का उल्लेख करना मेरा उद्देश्य है। ये वस्तुएँ हैं------
1 अरवा चावल (अक्षत) 2 रोली 3 सिंदूर 4 पान 5 सुपाडी़6 नारियल 7 कलश 8 पंच पल्लव 9 धान 10 धान की बाली 11 हल12 हरीश 13 पालो 14 काठ की चौकी 15 काठ की पिड़िया
16 बाँस 17नेवारी18 कनैल(पतला छरका19 गेहूँ की आँटी(गेहुमाठी) 20 धूप 21 दीपक 22 घी 23 पत्तल 24 दही25 घी 26 गुड़आदि।
उपर्युक्त वस्तुओं के प्रयोगात्मक औचित्य पर विचार करना ही मूल उद्देश्य है अतः क्रमशः इन पर विचार करना आवश्यक है।
1 , अक्षत -- अक्षत का अर्थ है जो टूटा न हो। धान कूट कर निकाला गया वह चावल जो पूर्ण हो खंडित नहीं। हर प्रकार के धार्मिक कर्मकांड में इसका प्रयोग होता है। इसका प्रयोग दो रूपों में होता है। सादा (सफेद) और रंगीन। रंगीन बनाने केलिए हल्दी अथवा पीले रंग का प्रयोग किया जाता है। वैवाहिक प्रसंग में एक ही बार प्रचुर मात्रा में रंगवाकर रख लिया जाता है कि मौके पर अभाव न लगे।
अक्षत समृद्धि का द्योतक है। मानव जीवन की श्रेष्ठता ‌का प्रमाणक भी है। भारत कृषिप्रधान देश है और यहाँ की मुख्य फसल धान है जिसका उत्पाद प्रथमत:चावल है। इसका उपयोग भोजन के अतिरिक्त पूजन, आवश्यकता के अनुसार सामान की खरीदगी, गरीबों में दान तथा अनेक प्रकार के अन्य उत्पाद के निर्माण में उपयोगी है। विवाहादि संस्कारों में चावल का उपयोग दो तरह से होता है। पूजा की सामग्री के रूप में इसका पीला रँगा हुआ रूप और अन्य जैसे पुरौता, चुमावन, नेग केलिए विना रँगा यानि सफेद ही काम में आता है।
चावल के आटा की भी आवश्यकता होती है जिससे प्रचलन के अनुसार चौका पूरने के अलावा कहीं -कहीं लड्डू(लड़ुआ) बनाने के काम में इसका उपयोग होता है।
रोली-- रोली का उपयोग चंदन केलिए होता है। षोडशोपचार में इसका सातवाँ स्थान है।
षोडस् उपचार में--
ध्यान, आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ, स्नान, वस्त्र, चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप ,दीप, नैवेद्य, आचमन, ताम्बूलादि-दक्षिणा , प्रार्थना और विसर्जन।
कुछ समयाभाव के कारण पाँच उपचार ही कर पाते हैं उनमें भी चंदन का स्थान निश्चित है। चंदन के नाम पर अभाव में कुछ दही अक्षत से भी काम चला लेते हैं। चंदन को उत्कृष्ट तत्व माना गया है इसलिए इसे ललाट पर धारण किया जाता है या देवताओं के ऊपर चढ़ाया जाता है। इसी क्रम में देवियों पर सिंदूर चढ़ाने का विधान है। ( क्रमश:)
चंदन के ऊपर अक्षत लगाने/ चढ़ाने का विधान है। फिर पुष्प धूप ,दीपक, के बाद नैवेद्य के रूप मे फल, मिष्टान्न या अभाव में गुड़ ही सही निवेदित किया जाता है। गुड़ और दही सर्वसुलभ के साथ शुभता , मधुरता का प्रतीक है।
नैवेद्य के पश्चात ताम्बूल(पान) सुपारी, लवंग तथा इलाइची के साथ द्रव्य- दक्षिणा अर्पित कर प्रणाम निवेदित किया जाता है। इतना कृत्य सभी पूजनीय देवताओं केलिए विहित है।
विवाह के अंगीभूत कर्मकांड में मृत्तिका हरण( मटकोर) , मंडपाच्छादन, कलश स्थापना, पूजन हरिद्रा वंदन, तृण-तोरण मातृका, षोडषमात‌ृका , घृतमात‌ृका पूजन घृत धारा प्रवहन एवं नांदी श्राद्ध आदि कार्य संपन्न होते हैं।
मृत्तिका हरण में घर से बाहर खेत की शुद्धमिट्टी
लाने के लिए घर की महिलाएँ अन्य महिलाओं के साथ जाती हैं। यह मिट्टी कलश स्थापना के लिए उपउक्त होती साथ है पृथ्वी माता के इस मंगल कार्य में साक्षी बनाने का भाव भी समाहित रहता है।
मंडप के केन्द्र में कृषि यंत्र हल और हरीस को उलटा कर स्थापित किया जाता है जिसका अभिप्राय है कि इस मांगलिक कार्य के प्रति पूर्ण समर्पण है।
तृणमातृका के लिए गेहूँ के डंठल का उपयोग होता है, अभाव में दूर्वा की भी बना ली जाती है।
इस कार्य में वर या कन्या के माता-पिता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
कलश स्थापना में पंच पल्लव धान की बाली, सप्त औषधि, सप्त मृत्तिका आदि वस्तुओं की आवश्यकता होती है जो परित: प्रकृति की आंगिक उपस्थिति के द्योतक हैं।
विवाहांग भूत लाज्याहुति में उभय पक्षीय धान के लावा का महत्व संबंध की दृष्टि से बहुत महत्व का होता है। क्यों कि बहुत सफाई के बाद भी धान के छिलके लावा से लगे ही रह जाते हैं मतलव यदि संबंध में मतभेद भी हो तब भी प्रेम बना ही रह जाए ऐसी कामना होती है। रामकृष्ण
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