जब जब होहि धरम की हानि ,

जब जब होहि धरम की हानि ,

भ्रमित हो जाता जब यह पंत ।
दुष्ट दुराचारी नीच संहारन हेतु ,
होते अवतरित हैं दिव्य कंत ।।
जब धरणी त्राहि त्राहि है करती ,
तब तब निरीक्षण करे हनुमंत ।
तब तब हरि अवतरित होकर ,
भक्तों की रक्षा किए भगवंत ।।
पैदा हुआ दानव हिरण्यकशिपु ,
दानव कुल प्रह्लाद हुए थे संत ।
प्रह्लाद अति प्रताड़ित हुए थे ,
फिर भी न छोड़ा निज था पंत ।।
प्रह्लाद जलाने बैठी होलिका ,
धधकती अग्नि दिव्य ज्वलंत ।
पवनदेव की बरसी ऐसी कृपा ,
होलिका जलकर पायी थी अंत ।।
निज भक्त प्रह्लाद की रक्षा हेतु 
नरसिंह आए ले बड़े नख दंत ।
हुआ अधर्म का नाश था तब ,
हिरण्यकशिपु का किये थे अंत ।।
तब आ रहे हम हैं इसे मनाते ,
होलिका दहन है वर्ष का अंत ।
होली वर्ष का प्रथम दिवस है ,
ढोल मजीरे संग बजे बहु तंत ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।
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