
गणित लगाकर कभी न देखा
गणित लगाकर कभी न देखा क्या खोया क्या पाया है।
जिसने भी मुस्कान बिखेरी हँसकर न गले लगाया है।
पछतावा किस बात का आख़िर क्या ले कर हम आये थे,
जो कुछ दिया जगत ने हमको हमने यहीं लुटाया है।
कभी शब्द से कभी राग से कभी रूप से प्रीति हुई,
बिछा सुमन की पंखुड़ियाँ पथ दुर्गम सुगम बनाया है।
प्रश्नचिन्ह यदि लगा सत्य पर कहीं झूठ हो उठा मुखर,
आहत हुए तनिक सा तत्क्षण अंतस को समझाया है।
स्वयं प्रकाश कहाँ लेता 'रवि' चंदा कब ले शीतलता,
सरिता ने कब स्वयं पिया जल वृक्ष ने कब फल खाया है।
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(रवि प्रताप सिंह)
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