अक्ल पे जब पत्थर पड़ता ,
यह बुद्धि नष्ट हो जाती है ।सुपथ से हम भ्रमित होकर ,
उल्टा काम ही अपनाते हैं ।।
इकट्ठा धन भी जाने लगता ,
हम अपना हाथ बढ़ाते हैं ।
बुरे लत के हम आदी होते ,
दारू शराब पीते पिलाते हैं ।।
चोरी डकैती शोषण करते ,
शेखी बहुत ही दिखलाते हैं ।
बातें बहुत ही बड़ी हैं करते ,
कर भी कुछ नहीं वे पाते हैं ।।
सारा धन भी जा रहा होता ,
जन का भी नाश कराता है ।
अक्ल पर जब पत्थर पड़ता ,
जन धन सब कुछ गॅंवाता है ।।
कहा जाता है इसीलिए यह ,
ईश्वर देते हैं छप्पर फाड़कर ।
जिसपर हैं वे क्रोधित होते ,
ईश्वर लेते हैं छप्पर फाड़कर ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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