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ठगहारी बाजार में आस्था नीलाम

ठगहारी बाजार में आस्था नीलाम

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी "
यदि आप नास्तिक हैं यानी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले हैं, पूजा-पाठ, जप-तप-दान, तर्पण-श्राद्धादि विविध कर्मकाण्डों में बिलकुल विश्वास नहीं है, न स्वर्ग का सपना है और न नरक का भय, तब कोई चिन्ता की बात नहीं। आस्था-श्रद्धा-विश्वास कुछ है ही नहीं, फिर नीलामी किसकी होगी ! लूटने के लिए भी लुटानेलायक सामान होना चाहिए। आपके पास कुछ है ही नहीं ठगाने को, तो ठगेगा कोई क्या?

बुद्ध से कभी किसीने पूछा था — ईश्वर है?

उन्होंने दावेदार उत्तर दिया — बिलकुल है।

और फिर कभी किसी ने कहा —ईश्वर का तो कोई अस्तित्व नहीं है? वैसा ही दावेदार जवाब फिर मिला—बिलकुल नहीं है।

और फिर जब कभी किसी ने पूछ दिया—ईश्वर है या नहीं?

तब बड़े सौम्य भाव से बुद्ध ने कहा— स्वयं ढूढ़ो...है नहीं है के संशय में भटकना बन्द छोड़ो...किसी के कहने, न कहने की परवाह न करो...।

मैं भी यही कहना चाहता हूँ।

किन्तु यहाँ बात कर रहा हूँ उन आस्थावानों के सम्बन्ध में, जो सौभाग्य या कहें दुर्भाग्य से ‘अस्ति’ सिद्धान्त वाले हैं—आस्तिक हैं। चुँकि वो हैं, इस कारण उन्हें बहुत सतर्क-सावधान रहने की जरुरत है आज की दुनिया में, क्योंकि चारों ओर आस्थाओं की नीलामी की बोली लग रही है।

मजे की बात है कि अधर्म की कन्दराओं से कहीं ज्यादा, धर्म के सजे-धजे पण्डालों में आस्था की बोलियाँ लगती है। ये कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसा कि हस्तिनापुर राजसभा में सबके समक्ष द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था और एक — विदुर को छोड़कर किसी और ने चूँ तक न की थी। भले ही उसका परिणाम कुछ न निकला हो, किन्तु भीष्म-द्रोणादि की तुलना में विदुर वहाँ कर्तव्यनिष्ठ जान पड़ते हैं मुझे।

हालाँकि ‘निष्ठा और प्रतिज्ञा’ ने ही महाभारत कराया। अवांछित सपने, झूठ-फरेब, षड़यन्त्र सब निरस्त हो जाते, यदि निष्ठाएं और प्रतिज्ञाएं आड़े न आती। वैसे, कुन्ती का मौन भीष्ण-द्रोण के मौन से कम घातक नहीं लगता मुझे। कुन्ती समय पर यदि सत्य-प्रकट कर दी होती तो घटनाक्रम कुछ और ही होता।

अस्तु। श्वेत वस्त्र और श्वेत केशों वाले विज्ञों से भरी सभा में जैसे द्रौपदी की लाज सभासदों द्वारा नहीं बचायी जा सकी, उसी भाँति तात्कालिक पीठाधीश्वरों, तीर्थाधिष्ठाताओं, आचार्यो, पुरोहितों आदि से बहुत आशा रखने की आवश्यकता नहीं है आस्तिक समुदाय को, क्योंकि ये सभी अपनी-अपनी निष्ठाओं और नियमों में जकड़े हुए हैं। हो सकता है कि किसी की कोई प्रतिज्ञा भी हो। हो सकता है, पीठ और पीठासीनों की अपनी विवशताएं हों। हो सकता है कि गद्दी की गरिमा-महिमा तले कर्त्तव्य और दायित्व का सही बोध नहीं हो पा रहा हो या करना नहीं चाह रहे हों या नेताओं की कुर्सी-सुरक्षा की तरह इनका भी कार्यकाल सोच-विचार में ही व्यतीत हो जा रहा हो...।

कारण जो भी हो, स्थिति है बिलकुल ठगहारी वाली ही, नीलामी वाली ही । कहीं न कहीं हम-आप ठगे जा रहे हैं।

हालाँकि ये कहकर मैं वामपन्थी विचारधारा को पुष्ट नहीं कर रहा हूँ, उन्हें अवसर नहीं देना चाहता और कुछ कहने का, किन्तु जो अवसर, जो स्थिति तथाकथित वर्तमान महानुभावों ने बना रखा है, क्या वह विचारणीय नहीं है? क्या आस्थावानों के साथ छल नहीं हो रहा है? क्या श्रद्धावान ठगे नहीं जा रहे हैं? क्या ये आस्तिक होने का दण्ड है?
विगत पचीस वर्षों से पितृभूमि-विष्णुनगरी गयाधाम प्रवासी हूँ। आवासी बनने की मनसा-लालसा ही नहीं रही कभी, फिर प्रयत्न क्या करना। प्रयत्न किया होता, ठगहारीबाजार का हिस्सा बन गया होता, तो किराये की कोठरी में जीवनयापन करने के वजाय, अपनी आलिशान कोठी में अकड़ रहा होता। सायकिल नहीं मोटरसायकिल की सवारी करता। समय-समय पर हवाई सफर भी करता।

अगर किसीकी आस्था को ठेस न पहुँचे तो कहना चाहूँगा कि प्रेतनगरी बन चुकी मोक्षनगरी गयाधाम में कमाई का मुख्य साधन हैं—सुदूर प्रान्तों से आए तीर्थयात्री, जो मोक्षभूमि गया में बड़ी आस्था और श्रद्धा के साथ आते हैं, अपने पितरों के उद्धार की कामना से। आचार्य, पुरोहित से लेकर शहर के होटल, धर्मशाला, मॉल, बाजार, गोदाम, टेन्ट, क्रॉकरी, ठेले-खोमचे, नाई, धोबी, माली, मजदूर सबको प्रतीक्षा रहती है इन यात्रियों की। और जब सबको रहती है तो सरकारबहादुर को क्यों न हो ! और तो और रेलविभाग पितृपक्ष मेले के नाम पर टिकटों का मूल्य बढ़ा देता है—मेला अधिभार के नाम पर।

धर्मप्राण आर्यावर्त में तीर्थ और मन्दिर सरकारों के लिए ‘कारू का

खजाना’ जो है। श्रद्धान्ध भोला भक्त अकूत दान देता है मन्दिरों को, तीर्थस्थलों को, जिसे कुटिल सरकारें लूट ले जाती हैं और इन दानराशियों से होता क्या है—आमजन इसे जानने की जरुरत भी नहीं समझता—दान दे दिया, फिर उसका हिसाब क्या रखना !

आस्थावान, श्रद्धालु गैरसरकारी संस्थाएं और विभिन्न सामाजिक संगठन भी इस भीड़ में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं। भजन-कीर्तन, प्रवचन आदि से वातावरण आप्लावित रहता है । इनके दान-धर्म, सेवाभाव के अद्भुत दृष्यों को देखकर मन आह्लादित हो उठता है—कितनी महान है हमारी संस्कृति। कितने अच्छे हैं हमारे लोग।

किन्तु इन सारी अच्छाइयों पर पानी फेर देता है चन्द धूर्तों और मूर्खाधिराजों की गुटबाजी और तीर्थपुरोहितों की उदासीनता और वैभवविलास वाली गहन तन्द्रा।

और ऐसे में बारहसिंघे वाली स्थिति पल भर में ही हो जाती है—सींग बड़े सुन्दर हैं, मोहक हैं, परन्तु पैर...।

आस्था का वो मोहक सींग ही हमें फँसा लेता है। जिन आचार्यों-पण्डितों पर पिण्डदान के कर्मकाण्ड का दायित्व है, वे ही आस्था की गर्दन पर मीठी कटार रेतते हैं। सच्चाई ये है कि हजारों नहीं, लाखों में सम्पन्न होने वाले कर्मकाण्ड में एक प्रतिशत भी विधिवत नहीं होता, क्योंकि धूर्तों और अयोग्यों के रेलमठेल में योग्य पिछड़ जाते हैं। धूर्तता अपने चरम पर है। अयोग्यों की गुटबाजी में योग्य पल भर भी खड़े नहीं रह सकते। कुछेक अपवादों को छोड़कर प्रायः यही गति है।

प्रसंगवश यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि सम्पूर्ण गयाश्राद्ध अपने आप में एक जटिल, श्रमसाध्य, समयसाध्य और अर्थसाध्य कर्मकाण्ड है। सम्पूर्ण के लिए अक्षम श्रद्धालु शास्त्र-सम्मत संक्षिप्त विधान का पालन कर सकते हैं, किन्तु संक्षिप्त की भी अपनी पद्धति है, अपनी सीमा है। कलिकाल प्रभाव से ३६० वेदियों का अस्तित्व सिमटकर अब ४५ वेदियों पर आ टिका है। इनमें भी आदि-मध्य-अन्त के क्रम से मात्र तीन वेदियों पर, सत्रह दिवसीय के वजाय एक दिवसीय संक्षिप्ततम विधान है, जो कि छः से आठ घंटे का कठिन कार्य है।

ध्यातव्य है कि गयाश्राद्ध देवकार्य नहीं, प्रेतकार्य भी नहीं अपितु पितृकार्य है। देवकार्यों में भावशुद्धि मात्र से काम चल जा सकता है, किन्तु पितृकार्य तो कायशुद्धि, क्रियाशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, भावशुद्धि और सर्वोपरि वाक्यशुद्धि पर निर्भर करता है। ये मेलआईडी की भाँति है—एक डॉट, डैश, स्लैश, कैपीटल, स्मॉल सबका ध्यान रखना पड़ता है। कुछ भी छूटा तो गए काम से।

एक वेदी पर एक पिंडदानी के लिए कम से कम ढाई-तीन घंटे का समय लगना चाहिए विधिवत कर्मकाण्ड में। किन्तु स्थिति ये है कि पाँच मिनट से पन्द्रह मिनट में भेड़-बकरियों के समूह की तरह बैठाकर, सबका काम निपटा दिया जाता है पेशेवर ठगविद्या विशारद पंडितों द्वारा—गयायाम् गया सिरे फल्गु गंगा तीरे...माँ-बाप का नाम लेकर पिंड छोड़ दो — यही है मूर्ख पंडितों का गयाश्राद्ध पद्धति। इतना ही नहीं माइक लगाकर, शोर मचाकर, भोले यजमानों को लुभाने-बरगलाने के चक्कर में अन्य शान्तिप्रिय श्रद्धालुओं को भी परेशान करते हैं ये मूरख। परिणामतः मूर्खों की बाढ़ में योग्य आचार्य तिनके की तरह बह रहे हैं। ठगों की अपनी गुटबन्दी है, कोई कुछ बोल भी नहीं सकता।

शासन-प्रशासन, स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा व्यवस्था तो बड़ी अच्छी होती है, किन्तु कर्मकाण्डीय अव्यवस्था के कारण सब गुड़ गोबर हो जाता है। जिस काम के लिए श्रद्धालु आते हैं, वही काम सबसे घटिया होता है। मोक्षभूमि पिकनिक स्पॉट बनकर रह जाता है।

इस गम्भीर समस्या पर विचार करने की आवश्यकता है। इस दुर्व्यवस्था में सुधार लाने की आवश्यकता है। और ये पुनीत कार्य सभी आस्थावानों द्वारा होना चाहिए, क्योंकि ठगे वे ही जा रहे हैं ।

हालाँकि अपने साथ अपने परिचित योग्य आचार्य लाने की मनाही नहीं है, किन्तु परिचित की योग्यता का विचार भी आपको अपने विवेक से ही करना होगा। और हाँ, कर्मकाण्डीय योग्यता की पहचान बहुरूपियों वाला चोला-बाना नहीं, बल्कि शास्त्रीय ज्ञान और व्यावहारिक समझ है, जिसका सर्वथा अभाव सर्वत्र झलक रहा है। बहुरूपियों की भीड़ से सत्शास्त्रज्ञों को चुन निकालना बड़ा कठिन है। किन्तु निकालना तो होगा ही। अन्यथा ये बहुरूपिये आस्थारूपी अक्षयवट में यूँ ही बसेरे लिए रहेंगे—घुन के कीड़ों की तरह।

इन्हें निकाल फेंकने के लिए आस्थावानों को जरा सतर्क और समझदार होना होगा। ये ठीक है कि रोग निवारण के लिए डॉक्टरी का ज्ञान रखना जरुरी नहीं है, किन्तु रोग की बुनियादी समझ तो आवश्यक है न। ऐसा नहीं कि मामूली पेटदर्द के लिए सर्जरी करा ले। मकान बनाने के लिए सिविल ईंजीनियर की डिग्री जरुरी नहीं है, किन्तु सिर्फ बालू का भीत बनाने को कोई कहे तो क्या हम मान लेंगे?

अतः अन्धश्रद्धा से उबरकर, आस्थावानों को कर्मकाण्ड का गहन ज्ञान

रखना जरुरी नहीं है, किन्तु बुनियादी समझ तो होनी ही चाहिए । और यदि आप सच्चे मन से समझना चाहें तो समझदारी बड़ी सस्ती चीज है। संस्कृत नहीं जानते, किन्तु विविध कर्मकाण्डों की सस्ती सुलभ पुस्तकें हिन्दी व्याख्या सहित गीताप्रेस में उपलब्ध हैं, उन्हें मौके पर पलट तो सकते ही हैं—फेशबुक, वाट्सऐप वाला समय बचा कर। और ये बात पक्की है कि आप यदि बुनियादी बातों की जानकारी रखते हैं, तो फिर आपको कोई ज्यादा बेवकूफ नहीं बना सकता। अतः आपका ये दायित्व है, कर्तव्य भी है और अधिकार भी—आप जाने-समझें इन सनातनी बातों को।

हालाँकि महान तीर्थवृक्ष के पुष्ट तने में छिपे घुन के कीड़ों को निकालने का सर्वाधिक दायित्व हमारे तीर्थपुरोहितों को है, जो वर्तमान में बहुत ही सीमित संख्या में हैं और उदासीनता का लिहाफ ओढ़े विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इन्हें दुर्गति-दुर्व्यवस्था का कुछ पता ही नहीं है। सबकुछ ज्ञात है, किन्तु चुँकि बैठे-विठाए यथेष्ट मिल ही जाता है, फिर विशेष कुछ करने की जरुरत ही नहीं समझते । तटस्थ बने रहते हैं।

किन्तु क्या सही में तटस्थ हैं?

भीष्म-द्रोण की तथाकथित तटस्थता (मौन) ने ही उनका नाश कराया। शनैः-शनैः ये तीर्थपुरोहित भी विनष्ट हो जायेंगे। ब्रह्मकल्पित तीर्थपुरोहितों की सनातनी गद्दी ठगों-धूर्तों के वर्चश्व में पूर्णरूपेण चली जायेगी। जिस भाँति प्राचीन आर्यावर्तीय राजाओं का परस्पर ईर्ष्या-द्वेष ही बाहरी ताकतों को पलने-बढ़ने और फिर हुकूमत करने का अवसर दिया, उसी भाँति निकट भविष्य में तीर्थाधिष्ठाताओं (तीर्थपुरोहितों) का विलासितापूर्ण सामाज्य छिन जायेगा।

अतः, उदासीनता, मदान्धता और तटस्थता के घने कुहरे से मुक्त होकर, तीर्थमुक्ति हेतु धर्मभूमि कुरूक्षेत्र में उतरना होगा। आन्तरिक वैमनस्यता को विसार कर, शेषशायी की छत्रछाया में एकत्र होकर कुछ निर्णय लेना होगा।

एक आचार्यकुलम् की स्थापना करनी होगी, जहाँ विधिवत वैदिक कर्मकाण्डों की निःशुल्क शिक्षा-व्यवस्था हो, क्योंकि शुल्क देकर व्यवसायी पण्डितों को बुलाना बहुत कठिन है, क्योंकि निःशुल्क-व्यवस्था में भी उन्हें समय देकर कुछ सीखने-जानने में अभिरूचि नहीं है। और अभिरूचि इस कारण नहीं है कि सच में कार्यव्यस्त है, बल्कि वे स्वयं को ही महाज्ञानी और पारंगत समझे बैठे हैं। इसके साथ ही बड़ी संख्या में युवकों को शिक्षित-प्रशिक्षित करना होगा और फिर उन्हें सामाजिक और प्रशासनिक सहयोग से परिचय-पत्र निर्गत करके, कार्यक्षेत्र में नियुक्त करना होगा तथा ये सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी शिक्षण-प्रशिक्षण विहीन व्यक्ति तीर्थस्थलीय पौरोहित्यकार्य में कदापि प्रविष्ट न होने पाए। इसके लिए गहन गुप्तचरी भी करनी होगी। पकड़े जाने पर कठोर सामाजिक और न्यायिक दण्ड भी देना-दिलाना होगा। इन सब कार्यों के लिए आचार्यकुलम् समिति के सदस्यों को बहुत सतर्क और सावधान रहने की आवश्यकता होगी, क्योंकि जोंक को लम्बे समय से उनके लहू पीने की लत लग चुकी है। 
अस्तु।

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