कुत्तेश्वर काका की रेलयात्रा

कुत्तेश्वर काका की रेलयात्रा

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी "
नाम के अटपटेपन से घबराइयेगा नहीं। पश्चिम में प्रचलित कुत्ते-बिल्लियों के सारे नाम, हम आधुनिक आर्यावर्त, जिसे इण्डिया कहते हैं, में अपने प्यारे लाडले-लाडलियों के लिए अख्तियार-अंगिकार-स्वीकार कर गौरवान्वित हो रहे हैं, ऐसे में काका कुत्तेश्वरनाथ नाम पर किसी को क्यों आपत्ति हो—समझ से परे है।

हालाँकि ये नाम उनके माँ-वाप ने नहीं रखा था, क्योंकि वे मॉर्डन मम्मी-डैडी जैसे नासमझ नहीं थे। बाकायदा नामकरणसंस्कार हुआ था और ज्योतीषीय विचार करके आकर्षक सा नाम रखा गया था, किन्तु दुर्भाग्यवश असमय में ही वे दोनों काल-कवलित हो गए और अनाथ बालक कुत्तेश्वर के नाम से टोले-मुहल्ले में जाना जाने लगा। ज़ाहिर है कि ये किसी दुर्विचारी ने ये नाम दिया होगा और फिर इसे दुष्प्रचारित भी किया होगा।

हालाँकि दार्शनिक अन्दाज में लोग कहा करते हैं कि नाम में क्या रखा है... ऐसे में मैं भी यही कहूँगा कि नाम में क्या रखा है। कुत्तों से लाढ़ रखने के कारण किसी ने कुत्तेश्वर कह दिया तो आजकल ऐसे कुत्तेश्वरों की कमी नहीं है दुनिया में। गाय पालने में भले ही नाक-भौं सिकोड़ें लोग, किन्तु कुत्ता पालना शान-व-शौकत की निशानी है। कीच-कादो भरे गौशाले में गलीज होती है गाएं, किन्तु कुत्ता ठाट से पलंग पर सोता है, मेम साहिबा को गलबहियाँ देकर। घास-भूसा, जूठन गायें भले ही खा ले, किन्त कुत्ते तो वी.आई.पी. डिश लेते हैं। गाय के गोबर में भले ही दुर्गन्ध मिले, किन्तु कुत्ते का मल तो लैवेन्डर-जैश्मीन वाला लगता है न। इस मायने में कलिकाल में कुत्ते कहीं अधिक भाग्यशाली हैं गायों की तुलना में। क्यों न हो, इन्सानी हालत तो कुत्तों से भी बदतर है।

बात बस इतनी ही है कि अनाथ भोला-भाला बालक दिन भर गली के कुत्तों से खेलते रहता। कुत्तों के लिए कोई भला मानस रोटियाँ फेंकने आता तो उसी में से एकाध ये भी झपट लिया करता। कोई ऐसे भी लोग होते, जो डपट देते, झिड़क देते और बालक डर-सहमकर दुबक जाता। किन्तु पेट की दाह फिर उसे कुत्तों के ईर्द-गिर्द खींच ले जाता। सच कहें तो कुत्तों में उसके लिए जितनी सहानुभूति थी, उतना आसपास के इन्सानों में भी नहीं दिखी कभी—कुत्तों के साथ खाना-सोना, कुत्तों के साथ खेलना-कूदना। इन्सान तो कुत्तों की तरह ही इस पर भी ढेले ही मारते रहे। और इस प्रकार कुत्तों के बीच पलते हुए ही उसका वचपन सरकता गया।

सौभाग्य से एक दिन एक महात्माजी की नज़र उसपर पड़ी। कहने को तो आँखें हम सबके पास हैं, किन्तु देखने-समझने की सीमा बड़ी सिमटी-सिकुड़ी है। महात्माजी ने पता नहीं क्या देखा उस अनाथ बालक में कि गांववालों से बालक के विषय में तहकीकात करके, आश्वस्त होकर उसे अपने साथ ले गए।

युवा होते-होते वही अनाथ बालक कालभैरव का अनन्य उपासक बाबा कुत्तेश्वरनाथ हो गया और बहुत बाद में गाँव वालों के लिए कुत्तेश्वर काका। शरीर छोड़ने से पहले महात्माजी ने अपनी पुरानी गद्दी उसे सौंप दी थी, जहाँ आए दिन दूर-दूर से आकर भिखारी किस्म के इन्सान अपनी अरमानों की भूख लेकर कुत्तेश्वरबाबा के दरबार में हाजिरी लगाते रहते।

एक बार मेरा भी सौभाग्य हुआ उनके दर्शन का। सुदूर सीमावर्ती जंगलों में उनका बसेरा था। इन्सानी आबादी से सदा गुप-चुप रहा करते थे। किन्तु स्वार्थ में अन्धा आदमी किसी को शान्ति से एकान्त वास करने दे तब न। एक बार महानगर के एक महानुभाव ने बहुत आग्रहपूर्वक उन्हें कुछ दिनों के लिए अपने यहाँ ले जाने को राजी कर लिया ।

कुत्तेश्वरकाका के पास कुल नौ कुत्ते थे, जिन्हें रेशमीडोर से बाँधकर, लोहे की रिंग में धानदौनी के दौरान ‘मेह’ में बँधे बैलों की तरह गूँथे रहते थे। कहीं जाना होता तो उस रिंग को अपने कमर में लगा लेते—बाबा स्वयं मेह बन जाते और कुत्ते दौनी के बैल। इन्हें वो किसी हाल में छोड़ने को राजी नहीं होते। यहाँ तक कि रेलयात्रा में भी साथ ले चले। नौ कुत्ते, स्वयं और श्रद्धालु महानुभाव—यानी कुल ग्यारह वर्थ रिजर्व कराया गया।

ट्रेन में चढ़ते समय रेलकर्मचारियों ने आपत्ति जतायी—यात्री डब्बे में इतने सारे कुत्ते लेकर जाने की अनुमति नहीं दी। काफी तू-तू-मैं-मैं के बाद उन्हें ब्रेकभैन में रखा गया। कुत्तों के लिए एलॉट नौ वर्थ खाली रह गए।

रेलयात्रा की सुव्यवस्था से आप भी भलीभाँति परिचित होंगे—दिन तो दिन, रात में भी आप चैन से अपने वर्थ पर सो नहीं सकते। टी.टी.बाबू पहले तो अंग्रेजी-फारसी बतिआयेंगे और फिर गाँधीजीवाली हिस्सेदारी सहर्ष लेकर किसी के साथ एडजस्ट करने की राय दे देंगे। आप तो एन्ट्री फी दे ही दिए, लोग अपना समझें...।

उस दिन भी यही हुआ। कुत्तों वाली खाली वर्थ पर तो एडजस्टमेंट की बात भी नहीं लगी किसी को। एक साथ नौ वर्थ खाली देख कर रेलमठेल मंच गया उन्हें हथियाने को। किन्तु कुत्तेश्वरकाका ने किसी को पास फटकने न दिया। हो-हल्ला सुनकर टी.टी. बाबू लपके आए। साथ में दो-चार वर्दीधारियों को भी लेते आए। काका तो पहले से ही भन्नाये हुए थे, किन्तु रेल-नियमों के सामने उन्हें झुकना पड़ा था। उन्हीं रेल-नियमों को फिर ढाल बनाया काका ने— वर्थ आरक्षित हैं, फिर अनारक्षित का अधिकार कैसे हो सकता है? आरक्षण की नशीली पुड़िया तो आजादी के साथ ही थमायी गई थी देशवासियों को कुछ दिनों के लिए, किन्तु वो कुछ दिन अभी तक दुर्भाग्य से पूरा नहीं हो पाया, बल्कि उसका अन्य स्वरूपों में भी इस्तेमाल हो रहा है— सरकारी नौकरियों से लेकर संसद तक। सोचने वाली बात है कि आरक्षित सीट पर कोई अनारक्षित चुनाव नहीं लड़ सकता, तो फिर आरक्षित सीट पर कोई अनारक्षित वैठ कैसे जायेगा?

कुत्तेश्वरबाबा, टी.टी. बाबू और यात्रियों के बीच लम्बी बहस चलती रही, किन्तु कोई समाधान न निकला। अन्त में बाबा ने निश्चय किया कि अगले जिला मुख्यालय वाले स्टेशन पर बाबा अपनी रेलयात्रा स्थगित कर देंगे और इस गम्भीर समस्या के समाधान के लिए अदालत का दरवाजा खटखटायेंगे। अदालत में बाबा की अर्जी मंजूर हो गयी है। तारिखें पड़नी शुरु हो गयी है। फैसले का इन्तजार है। आप भी इन्तजार करें, मैं तो कर ही रहा हूँ।
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