अध्यात्म और पर्यावरण

अध्यात्म और पर्यावरण

मार्कण्डेय शारदेय 
(ज्योतिष धर्मशास्त्र विशेषज्ञ)
जान –बूझकर की जानेवाली गलती प्रज्ञापराध कहलाती है और हम वही कर रहे हैं । पेड़ काट रहे हैं, पर्वतों को नंगा कर रहे हैं, अतिक्रमित नदियों-जलाशयों में रासायनिक कचरे घोल रहे हैं, वायु में विषैली गैसें और वाहनों-मशीनों की कानफाड़ू ध्वनियाँ मिला रहे हैं, परमाणु–संपन्न होने के होड़ परमाणु हथियारों के निर्माण, उत्पादन, अनुसंधान तथा तैनाती में अग्नितत्त्व को प्रदूषित कर रहे हैं; पुनः समग्र जीवन की जननी धरती को अपने नानाविध कुकृत्यों से तबाह-तबाह कर रहे हैं।जिन पाँच तत्त्वों से यह जीव-जगत् बना है, वे सभी त्राहि-त्राहि कर रहे हैं।ऐसे में हम क्या खुशहाल रह सकते हैं? क्या कृत्रिम उपकरणों-साधनों से रक्षा हो सकती है? लाखों-करोड़ों वर्ष पूर्व जो पर्यावरण तैयार हुआ और जिसने हमें संरक्षण दिया, क्या हम उनपर कुल्हाड़ी नहीं मार रहे हैं? क्या हम आत्मघाती नहीं बन रहे हैं? अपनी ही झोपड़ी जलाकर होलिका-दहन नहीं मना रहे हैं? यह कैसा विकासवाद है ?
भारतीय संस्कृति पंचतत्त्वों की शान्ति का पक्षधर रही है।यह ‘द्यौः शान्तिः अंतरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिः आपः शान्तिः ------ जैसी घोषणा करती आई है।यह ब्रह्माण्ड और पिण्ड को समान मानती आई है तथा सबमें देवत्व का दर्शन किया है इसने।कार्य-कारण रूप होने से सबमें नित्यता-अनित्यता देखी।सबका कारण ईश्वर को माना, तदनुसार ईश्वर में पाँचों तत्त्वों की सभी अवस्थाएँ सर्वदा विद्यमान रहती हैं।वह एक से अनेक होने के लिए इनका विस्तार करता है तथा समेटने के समय आत्मसात् कर लेता है ।
अपने शरीर को देखें तो त्वचा, हड्डियाँ, नाड़ियाँ, रोम और मांस पृथ्वी से; लार, मूत्र, रज-वीर्य, मज्जा, रक्त– ये जल से; भूख-प्यास, आलस्य, निद्रा, कान्ति– ये अग्नि से; सिकोड़ना, दौड़ना, लाँघना, फैलाना, चेष्टा करना— ये वायु से; सुनना, बोलना, गम्भीरता, धारणा– ये आकाश तत्त्व की देन हैं। गन्ध में पृथ्वी, रस में जल, रूप में अग्नि, स्पर्श में वायु तथा शब्द में आकाश तत्त्व है।इन पाँचों में पंचदेव एवं मंगल से शनि पर्यन्त पंचग्रह ही क्यों; पंचब्रहम की भी प्रतिष्ठा है।इसीलिए पंचप्राणों एवं पाँचों अवस्थाओं से युक्त शरीर भी देवमय है।
सोचिए; इनमें से कोई तत्त्व जब उद्वेलित होगा, आहत होगा, विषाक्त होगा तो उसका कुप्रभाव ब्रह्माण्ड के साथ शरीर पर होगा ही।विभिन्न बीमरियाँ होंगी ही।पर्यावरण सन्तुलित रहेगा तो हम स्वस्थ व सन्तुलित होंगे ही।आज की देन हमारी है, हमारे पूर्वजों की नहीं।हमारे पूर्वज तो पूर्णतः अध्यात्मवादी थे। उनका आत्मचिन्तन ब्रह्माण्ड–चिन्तन था।वे आत्मवत् सर्वभूतेषु, अर्थात् अपनी तरह सबको समझनेवाले थे।प्रकृति से उनका साहचर्य था।इसीलिए वैयक्तिक एवं सामाजिक विकृतियाँ भी संयमित थीं।धरती के प्रति मातृभावना, वन-वाटिका की देख-रेख, जलाशयों की स्वच्छता, वृक्षारोपण– जैसे कार्य हमारे धार्मिक अंग रहे हैं।पर्यावरण के रक्षार्थ ही प्रकृति के अंग-अंग की पूजा करनेवाले हम कृत्रिमता के पूजक हो गए हैं।प्रतिस्पर्धा में आत्महन्ता हो गए हैं।काश! विश्व-मानव अब से भी चेत जाए तो जिन्दगी हसीन हो जाए, लुप्त होते अनेक जीव शृंगार बन जाएँ, ऋतुएँ संयमित हो जाएँ।प्रकृति संस्कृति बन जाए।(सांस्कृतिक तत्त्वबोध से)
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