चारों आश्रमों में ब्रह्मचर्य प्रथम आश्रम है
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रशान्तात्मा विगतभीब्र्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मंचित्तो युक्त आसीत मत्परः।। 14।।
प्रश्न-यहाँ ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित रहना क्या है?
उत्तर-ब्रह्मचर्य का तात्त्विक अर्थ दूसरा होने पर भी, वीर्यधारण उसका एक प्रधान अर्थ है; और यहाँ वीर्यधारण का अर्थ ही प्रसंगानुकूल भी है। मनुष्य के शरीर में वीर्य ही एक ऐसी अमूल्य वस्तु है जिसका भलीभाँति संरक्षण किये बिना शारीरिक, मानसिक अथवा
आध्यात्मिक किसी प्रकार का भी बल न तो प्राप्त होता है और न उसका संचय ही होता है। इसीलिये आर्य संस्कृति के चारों आश्रमों में ब्रह्मचर्य प्रथम आश्रम है, जो तीनों आश्रमों की नींव है। ब्रह्मचर्य-आश्रम में ब्रह्मचारी के लिये बहुत से नियम होते हैं, जिनके पालन से वीर्य धारण में बड़ी भारी सहायता मिलती है। ब्रह्मचर्य के पालन से यदि वास्तव में वीर्य भली भाँति
धारण हो जाय तो उस वीर्य से शरीर के अंदर एक विलक्षण विद्युत शक्ति उत्पन्न होती है और उसका तेज इतना शक्तिशाली होता है कि उस तेज के कारण अपने-आप ही प्राण और मन की गति स्थिर हो जाती है और चित्त का एकतान प्रवाह ध्येय वस्तु की ओर स्वाभाविक ही होने लगता है। इस एकतानता का नाम ही ध्यान है।
आजकल चेष्टा करने पर भी लोग जो ध्यान नहीं कर पाते, उनका चित्त ध्येय वस्तु में नहीं लगता, इसका एक मुख्यतम कारण यह भी है कि उन्होंने वीर्य धारण नहीं किया है। यद्यपि विवाह होने पर अपनी पत्नी के साथ संयम पूर्ण नियमित जीवन बिताना भी ब्रह्मचर्य ही है और उससे भी ध्यान में बड़ी सहायता मिलती है; परन्तु जिसने पहले से ही ब्रह्मचारी के नियमों का सुचारू रूप से पालन किया है और ध्यान योग की साधना के समय तक जिसके शुक्र का बाह्य रूप में किसी प्रकार भी क्षरण नहीं हुआ है, उसको ध्यान योग में बहुत शीघ्र और बड़ी सुविधा के साथ सफलता मिल सकती है।
मनु स्मृति आदि ग्रन्थों में तथा अन्यान्य शास्त्रों में ब्रह्मचारी के लिये पालनीय व्रतों का बड़ा सुन्दर विधान किया गया है, उनमें प्रधान ये हैं-‘ब्रह्मचारी नित्य स्नान करे, उबटन न लगायें, सुरमा न डाले, तेल न लगायें, इत्र-फुलेल आदि सुगन्धित वस्तुओं का व्यवहार न करें, फूलों के हार और गहने न पहनंे, नाचना-गाना-बजाना न करें, जूते न पहनंे, छाता न लगायें, पलंग पर न सोयें, जुआ न खेले, स्त्रियों को न देखे, स्त्री सम्बन्धी चर्चा तक कभी न करे, नियमित सादा भोजन करे, कोमल वस्त्र न पहने, देवता, ऋषि और गुरु का पूजन-सेवन करे, किसी से विवाद न करे, किसी की निन्दा न करे, सत्य बोले, किसी का तिरस्कार न करें, अहिंसा व्रत का पूर्ण पालन करे, काम, क्रोध और लोभ का सर्वथा त्याग कर दें, अकेला सोवे, वीर्यपात कभी न होने दें और इन व्रतों का भली भाँति पालन करे।’ ये ब्रह्मचारी के व्रत हैं। भगवान् ने यहाँ ब्रह्मचारि व्रत’ की बात कहकर आश्रम धर्म की ओर भी संकेत किया है। जो अन्य आश्रमी लोग ध्यान योग का साधन करते हैं उनके लिये भी वीर्य धारण या वीर्य संरक्षण बहुत ही आवश्यक है और वीर्य धारण में उपर्युक्त नियम बड़े सहायक हैं यही ब्रह्मचारी का व्रत है और दृढ़तापूर्वक इसका पालन करना ही उसमें स्थित होना है।
प्रश्न-‘विगतभीः’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-परमात्मा सर्वत्र हैं और ध्यान योगी परमात्मा का ध्यान करके उन्हें देखना चाहता है, फिर वह डरे क्यों? अतएवं ध्यान करते समय साधक को निर्भय रहना चाहिये। मन में जरा भी भय रहेगा तो एकान्त और निर्जन रहना चाहिये। मन में जरा भी भय रहेगा तो एकान्त और निर्जन स्थान में स्वाभाविक ही चित्त में विक्षेप हो जायगा। इसलिये साधक को उस समय मन में यह दृढ़ सत्य धारण कर लेना चाहिये कि परमात्मा सर्वशक्तिमान हैं और सर्वव्यापी होने के कारण यहाँ भी सदा हैं ही, उनके रहते किसी बात का भय नहीं है। यदि कदाचित् प्रारब्ध वश ध्यान करते-करते मृत्यु हो जाए, तो उससे भी परिणाम में परम कल्याण ही होगा् सच्चा ध्यान योगी इस विचार पर दृढ़ रहता है, इसी से उसे ‘विगतभीः’ कहा गया है।
प्रश्न-‘युक्तः’ विशेषण का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-ध्यान करते समय साधक को निद्रा, आलस्य और प्रमाद् आदि विघ्नों से बचने के लिये खूब सावधान रहना चाहिये। ऐसा न करने से मन और इन्द्रियाँ उसे धोखा देकर ध्यान में अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित कर सकती हैं। इसी बात को दिखलाने के लिये ‘युक्तः‘ विशेषण दिया गया है।
प्रश्न-मन को रोकना क्या है?
उत्तर-एक जगह न रुकना और रोकते-रोकते भी बलात्कार से विषयों में चले जाना मन का स्वभाव है। इस मन को भलीभाँति रोके बिना ध्यान योग का साधन नहीं बन सकता। इसलिये ध्यान करते समय मन को बाह्य विषयों में भलीभाँति हटाकर उसे अपने लक्ष्य में पूर्ण रूप से निरुद्ध कर देना यानी भगवान् में तन्मय कर देना ही यहाँ मन को रोकना है।
प्रश्न-‘मंचितः’ का क्या भाव है?
उत्तर-ध्येय वस्तु में चित्त के एकतान प्रवाह का नाम ध्यान है; वह ध्येय वस्तु क्या होनी चाहिये, यही तलाने के लिये भगवान् कहते हैं कि तुम अपने चित्त को मुझ में लगाओ। चित्त सहज ही उस वस्तु में लगता है, जिसमें यथार्थ प्रेम होता है; इसलिये
ध्यान योगी को चाहिये कि वह परम हितैषी, परम सुहृद्, परम प्रेमास्पद परमेश्वर के गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्य को समझकर, सम्पूर्ण जगत् से प्रेम हटाकर, एक मात्र उन्हीं को अपना ध्येय बनावे और अनन्य भाव से चित्त को उन्हीं में लगाने का अभ्यास करें।
प्रश्न-भगवान् के परायण होना क्या है?
उत्तर-जो परमेश्वर को अपना ध्येय बनाकर उनके ध्यान में चित्त लगाना चाहते हैं, वे उन्हीं के परायण भी होंगे ही। अतएव ‘मत्परः‘ पद से भगवान् यह भाव दिखलाते हैं कि ध्यानयोग के साधक को यह चाहिये कि वह मुझको (भगवान् को) ही परमगति, परम ध्येय, परम आश्रय और परम महेश्वर तथा सबसे बढ़कर प्रेमास्पद मानकर निरन्तर मेरे ही आश्रित रहे और मुझी को अपना एकमात्र परम रक्षक, सहायक, स्वामी तथा जीवन, प्राण और सर्वस्व मानकर मेरे प्रत्येक विधान में परम सन्तुष्ट रहे। इसी का नाम ‘भगवान् के परायण होना’ है।
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