रामचरितमानस बिमल

रामचरितमानस बिमल

डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
आजकल रामचरितमानस पर बहुत विवाद छिड़ा हुआ है ।कई धरती पुत्रों ने तो ऐसा भी कह दिया कि इसकी आपत्तिजनक चौपाइयां हटा दी जाएं ।किसी ने ऐसा कहा कि इसको बंद कर दिया जाए ।किसी ने ऐसा भी कहा -यह समाज को तोड़ने का काम करता है ।अब ऐसे अबोध जनों को क्या कहा जाए ! जिन्होंने न रामायण पढ़ी और नहीं संस्कार पाया , न तो भरपेट सनातनी हैं न भरपेट गैरसनातनी।इसलिए कि अन्य धर्म की घोर आपत्तीजनक रुढ़िवादियाँ दिखाई नहीं पड़ीं ।दूसरे की माँ को कुछ अशोभन कहेंगे तो वह जीभ खींच लेगा परन्तु अपनी माँ तो अपनी माँ है।उसे गाली भी देने का अधिकार संविधान ने दिया है और मारने का भी ।इसलिए कि उसने न तो मानस पढ़ी है न मनुस्मृति ।पढ़े होते तो उनके मुंह पर ताला लग जाता ,ऐसा कभी नहीं बोल सकते थे ।
गोस्वामी जी ने स्वयं कहा है - मैं कोई कभी नहीं हूँ-
कवि न होऊँ नहीं बचन प्रवीनू ।
सक्ल कला सब विद्या हीनू ॥

उन्होने तीन प्रकार के श्रोताओं का भी विश्लेषण किया है-


1- कवित रसिक न राम पद नेहू।
तिन्ह कँह सुखद हास रस एहू॥
2-प्रभि पद प्रीति न सामुझि नीकी।
तन्हहिं कथा सुनि लागहीं फीकी॥
3-हरिहर पद रति मति न कुतरकी।
तिन्हकँह मधुर कथा रघुवर की ॥
वे तो जानते थे कि जैसे-जैसे कलि का प्रभाव बढ़ेगा ,उनकी कविता को बर्दाश्त करने की क्षमता वैसे-वैसे कम होती जाएगी ।इसलिए इसकी चाबी भी रामायण शुरू होते ही डाल दी -जब तक कोई गुरु के सानिध्य में नहीं जाएगा, गुरु का ज्ञान नहीं होगा तब तक वह इस रामायण को बकवास ही कहेगा ।आगे उन्होंने स्पष्ट कर दिया -
श्री गुरु पद नख मनि गन ज्योति ।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ॥
दलन मोहतम सो सुप्रकासु।
बड़े भाग उर आवहिं जासु ॥
बहुत सौभाग्य जिसका होगा उसी के ह्रदय में यह ज्योति आएगी।
और नहीं तो -
जड़ता जाड़ बिसम उर लागा ।
गयहुं न मज्जन पाव अभागा ॥
इस सुर सरिता के किनारे जाकर भी वह जड़बुद्धे जाड़ा के भय से कंबल ओढ़ कर ही बैठा रहता है ।
आगे कहते हैं -
उघरहिं विमल विलोचन ही के ।
मिटहिं दोस दुख भव रजनी के ॥
तब जाकर -सूझहिं रामचरित मनि मानिक ।
गुप्त प्रगट जँह जो जेहि खानिक ॥
इसलिए इन गुणों के बिना कोई रामायण को नहीं समझ सकता है। प्रकाश को देखने के लिए आँखें चाहिए ।जिसकी आवखे तेज होती हैं वह अंधेरे में भी वस्तु को देख लेता है ।
इसीलिए रायण को किलित करते हुए कहा है -
कहिय न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि।
जो न भजइ सचराचर स्वामिही।
द्विज द्रोहिहि न सुनाइय कबहूँ।
सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ॥
रामकथा के तेई अधिकारी ।
जिनके सत्संगति अति प्यारी ॥
उन लोगों को ,जो इस पर आक्षेप डालते हैं ,पढ़ना ही नहीं चाहिए ।पढ़ लिया यही उनकी गलती है ।उन लोगों के लिए रजाई ओढ़ कर पढ़ने वाले उपन्यास ही काफी हैं ।उससे अधिक उनकी गति नहीं है।
गोस्वामी जी ने कुछ छिपाकर नहीं रखा है,डंके की चोट पर कहते हैं-
मैं ने कुछ नहीं लिखा है-
जागवलिक जो कथा सुहाई।
भरद्वाज मुनिवरहि सुनाई॥
कहिहऊँ सोई संवाद बखानी।
सुनहू सकल सज्जन सुख मानी॥
हे प्रभुता सम्पन्न अज्ञानी!यह कथा सज्जनों के लिए है। गोस्वामी जी पर व्यर्थ लाठी बरसा रहे हैं।
इसलिए मैं वैसे लोगों से प्रार्थना करूंगा जिन्होंने रामायण नहीं पढ़ी, धर्म को नहीं जाना ,धर्म के नाम पर आडंबर को ही अपनाया है ,इसे पढ़ें और पढ़ने के बाद बहस में उतरें।
बन्दऊँ सन्त असज्जन चरना।
डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
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