अर्जुन को संशय छोड़ने का उपदेश
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।
गीता अर्जुन और श्री कृष्ण के बीच संवाद है लेकिन सच्चाई यह है कि भगवान श्री कृष्ण के माध्यम से योगेश्वर एवं काल रूप परमेश्वर ने विश्व को ज्ञान दिया है। प्रथम अध्याय में महाभारत के महारथियों का परिचय, सेनी की व्यूह रचना, आतताई और महापाप आदि पर प्रकाश डाला गया है। यह अर्जुन के मोह ग्रस्त होने की कहानी है जबकि दूसरे आधार से भगवान कृष्ण अर्जुन के मोह को कैसे दूर करते है, यह बताया गया है।
महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र युद्ध में भगवान श्री कृष्ण ने गीता का सन्देश अर्जुन को सुनाया था। यह महाभारत के भीष्मपर्व के अन्तर्गत दिया गया एक उपनिषद् है। भगवत गीता में एकेश्वरवाद, कर्म योग, ज्ञानयोग, भक्ति योग की बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा हुई है। हजारों वर्ष पहले लिखी गयी भगवद् गीता का विश्लेषण व अभ्यास प्रत्येक विद्वान द्वारा अलग-अलग प्रकार से किया गया है और इस काल में जब उम्र में मात्र पच्चीस वर्ष के अंतर होने के उपरांत भी पुत्र अपने पिता के अंतर आशय को समझने में समर्थ नहीं है, तो फिर हजारों वर्ष बाद अंतर आशय किस तरह समझा जाएगा? पर, जिस तरह हम अपने हर रोज के जीवन में संवादहीनता के कारण कई बार गलतफहमियों के शिकार बन जाते हैं और जिसके कारण हम सही अर्थ से वंचित रह जाते हैं, ठीक उसी प्रकार स्वाभाविक रूप से समय के साथ भगवद् गीता का मूल (गूढ़) अर्थ भी लुप्त हो गया है।
यदि कोई भगवद् गीता का सारांश यथार्थ रूप से समझने में सक्षम हो तो वह परम सत्य का अनुभव कर राग (बंधन) की भ्रान्ति व संसार के दुखों से मुक्त हो सकता है। अर्जुन ने भी महाभारत का युद्ध लड़ते हुए सांसारिक दुखों से मुक्ति प्राप्त की थी। भगवान श्री कृष्ण के द्वारा दिए गए दिव्यचक्षु के कारण ही यह संभव हो सका और इसी दिव्यचक्षु के कारण अर्जुन कोई भी कर्म बाँधे बिना युद्ध लड़ने में सक्षम बने और उसी जीवन में मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया ज्ञान और कुछ नहीं बल्कि ‘मटीरिअल और पैकिंग’ (माल और डब्बे) का ही है। भगवत गीता जिसमें श्री कृष्ण भगवान साक्षात प्रकट हुए हैं ऐसे ज्ञानी पुरुष के प्रभाव पूर्ण शब्दों को दर्शाता है, जिसके द्वारा हम अपनी खोई हुई समझ को फिर से प्राप्त कर सकते हैं और उसके उपयोग द्वारा कर्मों से मुक्त हो सकते हैं।
आप इस लेखमाला से केवल ज्ञान के विषय से ही नहीं बल्कि भगवान श्री कृष्ण से सम्बंधित तथ्य और कथाएँ भी जान पाएंगे। सोलह हजार रानियाँ होने के बावजूद भी, वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाये? वास्तव में सुदर्शन चक्र क्या है? परधर्म और स्वधर्म किसे कहते हैं? गोवर्धन पर्वत को उठाने के पीछे का रहस्य क्या था? ऐसे सभी गूढ़ रहस्यों और दूसरा बहुत कुछ यहाँ उजागर होगा।
-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘एनम्’ पद के सहित ‘संशयम्’ पद यहाँ किस संशय का वाचक है और उसके साथ ‘अज्ञानसम्भूतम्’ और ‘हृतस्थम्’ इन विशेषणों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-इकतालीसवें श्लोक में ‘ज्ञान संछिन्न संशयम्’ पद में जिस संशय का उल्लेख हुआ है; तथा जिसका स्वरूप उसी श्लोक की व्याख्या में विस्तारपूर्वक बतलाया गया है-उसी का वाचक यहाँ ‘एनम्’ पद के सहित ‘संशयम्’ पद है। उसके साथ ‘अज्ञान सम्भूतम्’ विशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस संशय का कारण अविवेक है। अतः विवेक द्वारा अविवेक का नाश होते ही उसके साथ-साथ संशय का भी नाश हो जाता है। ‘हृतस्थम्’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया है कि इसका स्थान हृदय यानी अन्तःकरण है; अतः जिसका अन्तःकरण अपने वश में है, उसके लिये इसका नाश करना सहज है।
प्रश्न-अर्जुन को उस संशय का छेदन करने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है? क्या अर्जुन के अन्तःकरण में भी ऐसा संशय था?
उत्तर-पहले युद्ध को उचित समझकर ही अर्जुन लड़ने के लिये तैयार होकर रणभूमि में आये थे और उन्होंने भगवान् से दोनों सेनाओं के बीच में अपना रथ खड़ा करने को कहा था; फिर जब उन्होंने दोनों सेनाओं में उपस्थित अपने बन्धु-बान्धवों को मरने के लिये तैयार देखा तो मोह के कारण वे चिन्तामग्न हो गये और युद्ध को पापकर्म समझने लगे। इस पर भगवान् के द्वारा युद्ध करने के लिये कहे जाने पर भी वे अपना कर्तव्य निश्चय न कर सके और किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कहने लगे कि ‘मैं गुरुजनों के साथ कैसे युद्ध कर सकूँगा; मेरे लिये क्या करना श्रेष्ठ और इस युद्ध में किसकी विजय होगी, इसका कुछ भी पता नहीं है तथा मेरे लिये जो कल्याण का साधन हो, वही आप मुझे बतलाइये, मेरा चित्त मोहित हो रहा है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अर्जुन के अन्तःकरण में संशय, विद्यमान था, उनकी विवेक शक्ति मोह के कारण कुछ दबी हुई थी; इसी से वे अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सकते थे। इसके सिवा छठे अध्याय में अर्जुन ने कहा है कि मेरे इस संशय का छेदन करने में आप ही समर्थ हैं और गीता का उपदेश सुन चुकने के बाद कहा है कि अब मैं सन्देह रहित हो गया हूँ एवं भगवान् ने भी जगह-जगह अर्जुन से कहा है कि मैं जो कुछ तुम्हें कहता हूँ उसमें संशय नहीं है; इसमें तुम शंका न करो। इससे भी यही सिद्ध होता है कि अर्जुन के अन्तःकरण में संशय था और उसी के कारण वे अपने स्वधर्म रूप युद्ध का त्याग करने के लिये तैयार हो गये थे। इसलिये भगवान् यहाँ उन्हें उनके हृदय में स्थित संशय का छेदन करने के लिये कहकर यह भाव दिखलाते हैं कि मैं तुम्हें जो आज्ञा दे रहा हूँ, उसमें किसी प्रकार की शंका न करके उसका पालन करने के लिये तुम्हें तैयार होना चाहिये।
प्रश्न-यहाँ अर्जुन को अपने आत्मा का संशय छेदन करने के लिये कहने का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम मेरे भक्त और सखा हो, अतः तुम्हें उचित तो यह है कि दूसरों के अन्तःकरण में भी यदि कोई शंका हो तो उनको समझाकर उसका छेदन कर डालो; पर ऐसा न कर सको तो तुम्हें कम-से-कम अपने संशय का छेदन तो कर ही डालना चाहिये।
प्रश्न-योग में स्थित हो जा और युद्ध के लिये खड़ा हो जा, यह कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर-इससे भगवान् ने अध्याय का उपसंहार करते हुए यह भाव दिखलाया है कि मैं तुम्हें जो कुछ भी कहता हूँ, तुम्हारे हित के लिये ही कहता हूँ अतः उसमें शंका रहित होकर तुम मेरे कथनानुसार कर्मयोग में स्थित होकर फिर युद्ध के लिये तैयार हो जाओ। ऐसा करने से तुम्हारा सब प्रकार से कल्याण होगा।ं
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