भाई युधिष्ठिर, मित्र मैं, तब किसकी चिंता

भाई युधिष्ठिर, मित्र मैं, तब किसकी चिंता

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-यहाँ भगवान् ने अर्जुन के लिये ‘महाबाहो’ सम्बोधन देकर कौन-सा भाव व्यक्त किया है?

उत्तर-जिसके ‘बाहु महान् हों, उसे ‘महाबाहु’ कहते हैं। भाई और मित्र को भी ‘बाहु’ कहते हैं। अतएव भगवान् इस सम्बोधन से यह भाव दिखलाते हुए अर्जुन को उत्साहित करते हैं कि तुम्हारे भाई महान् धर्मात्मा युधिष्ठिर हैं और मित्र साक्षात् परमेश्वर मैं हूँ, फिर तुम्हें किस बात की चिन्ता है? तुम्हारे लिये तो सभी प्रकार से अतिशय सुगमता है।

प्रश्न-जब सांख्य योग और कर्म योग दोनों ही स्वतन्त्र मार्ग हैं तब फिर यहाँ यह बात कैसे कही गयी कि कर्म योग के बिना संन्यास का प्राप्त होना कठिन है?

उत्तर-स्वतन्त्र साधन होने पर भी दोनों में जो सुगमता और कठिनता का भेद है, उसी को स्पष्ट करने के लिए भगवान् ने ऐसा कहा है। मान लीजिये, एक मुमुक्षु पुरुष है और वह यह मानता है कि ‘समस्त दृश्य-जगत स्वप्न के सदृश मिथ्या है, एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है। यह सारा प्रपंच माया से उसी ब्रह्म में अध्यारोपित है। वस्तुतः दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं परन्तु उनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है, उसमें राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादि दोष वर्तमान हैं। वह यदि अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कोई चेष्टा न करके केवल अपनी मान्यता के भरोसे पर ही सांख्य योग के साधन में लगना चाहेगा तो उसे दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से तीसवें तक में और अठारहवें अध्याय के उनचासवें श्लोक से पचपनवें तक में बतलायी हुई ‘सांख्य निष्ठा’ सहज ही नहीं प्राप्त हो सकेगी। क्योंकि जब तक शरीर में अहं भाव है, भोगों में ममता है और अनुकूलता-प्रतिकूलता में राग-द्वेष वर्तमान हैं तब तक ज्ञाननिष्ठा का साधन होना-अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों में कर्तृत्वाभिमान से रहित होकर निन्तर सचिच्दानन्दधन निर्गुण निराकार ब्रह्म के स्वरूप में अभिन्न भाव से स्थित रहना-तो दूर रहा, इसका समझ में आना भी कठिन है। इसके अतिरिक्त अन्तःकरण अशुद्ध होने के कारण मोहवश जगत् के नियन्त्रणकर्ता और कर्म फलदाता भगवान् में और स्वर्ग-नरकाादि कर्म फलों में विश्वास न रहने से उसका परिश्रम साध्य शुभ कर्मों को त्याग देना और विषयासक्ति आदि दोषों के कारण पापमय भोगों में फँसकर कल्याण मार्ग से भ्रष्ट हो जाना भी बहुत सम्भव है। अतएव इस प्रकार की धारणा वाले मनुष्य के लिये, जो सांख्य योग को ही परमात्म-साक्षात्कार का उपाय मानता है, यह परम आवश्यक है कि वह सांख्य योग के साधन में लगने से पूर्व निष्काम भाव से यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मों का आचरण करके अपने अन्तःकरण को राग-द्वेषादि दोषों से रहित-परिशुद्ध कर ले, तभी उसका सांख्य योग का साधन निर्विघ्नता से सम्पादित हो सकता है और तभी उसे सुगमता के साथ सफलता भी मिल सकती है। यहाँ इसी अभिप्राय से कर्मयोग के बिना संन्यास का प्राप्त होना कठिन बतलाया है।

प्रश्न-यहाँ ‘मुनि’ विशेषण के साथ ‘योगयुक्तः’ का प्रयोग किसके लिये किया गया है और वह परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही कैसे प्राप्त हो जाता है?

उत्तर-जो सब कुछ भगवान् का समझकर सिद्धि-असिद्धि में समभाव रखते हुए, आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके भगवदाज्ञानुसार समस्त कर्तव्य कर्मों का आचरण करता है और श्रद्धा-भक्तिपूर्वक, नाम-गुण और प्रभाव सहित श्रीभगवान् के स्वरूप का चिन्तन करता है, उस भक्तियुक्त कर्मयोगी के लिये ‘मुनिः’ विशेषण के साथ ‘योगयुक्तः’ का प्रयोग हुआ है। ऐसा कर्मयोगी भगवान् की दया से परमार्थ ज्ञान के द्वारा शीघ्र ही परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न-यहाँ ‘मुनिः’ पद का अर्थ वाक्संयमी या जितेन्द्रिय साधक मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है?

उत्तर-भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करने वाला कर्मयोगी वाक्संयमी और जितेन्द्रिय तो होता ही है, इसमें आपत्ति कौन-सी बात की है?

प्रश्न-ब्रह्म’ शब्द का अर्थ सगुण परमेश्वर है या निर्गुण परमात्मा?

उत्तर-सगुण और निर्गुण परमात्मा वस्तुतः विभिन्न वस्तु नहीं हैं। एक ही परम पुरुष के दो स्वरूप हैं। अतएव यही समझना चाहिये कि ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ सगुण परमेश्वर भी है और निर्गुण परमात्मा भी।

योगयुक्तो विशुद्वात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।। 7।।

प्रश्न-‘योग युक्तः‘ के साथ ‘विजितात्मा’, ‘जितेन्द्रियः’ और ‘विशुद्धात्मा’ ये विशेषण किस अभिप्राय से दिये गये हैं?

उत्तर-मन और इन्द्रियाँ यदि साधक के वश में न हों तो उनकी स्वाभाविक ही विषयों में प्रवृत्ति होती है और अन्तःकरण में जब तक राग-द्वेषादि मल रहता है तब तक सिद्धि और असिद्धि में समभाव रहना कठिन होता है। अतएव जब तक मन और इन्द्रियाँ भलीभाँति वश में न हो जायँ और अन्तःकरण पूर्णरूप से परिशुद्ध न हो जाय तब तक साधक को वास्तविक कर्मयोगी नहीं कहा जा सकता। इसीलिये यहाँ उपर्युक्त विशेषण देकर यह समझाया गया है कि जिसमें ये सब बातें हों वही पूर्ण कर्मयोगी है और उसी को शीघ्र ब्रह्म की प्राप्ति होती है।

प्रश्न-‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ इस पद का क्या अभिप्राय है? उत्तर-ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमेश्वर ही जिसका आत्मा यानी अन्तर्यामी है, जो उसी की प्रेरणा के अनुसार सम्पूर्ण कर्म करता है तथा भगवान् को छोड़कर शरीर, मन, बुद्धि और अन्य किसी भी वस्तु में जिसका ममत्व नहीं है, वह ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ है।
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