सुशासन बाबू की शराब नीति

सुशासन बाबू की शराब नीति

(अशोक भाटिया-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
पूर्ण रूप से शराबबंदी आज तक किसी भी देश या राज्य में सफल नहीं हो पाई है, बिहार इसका अपवाद नहीं हो सकता है। समय आ गया है कि नीतीश कुमार अपनी जिद छोड़ दें और जिसे पीना ही है तो उसके लिए या तो परमिट सिस्टम लागू करें या फिर नशाबंदी खत्म ही कर दें ताकि सरकार को राजस्व मिले जिसका सदुपयोग जनहित कार्यों में किया जा सके और जहरीली शराब पी कर लोगों का मरना रुक सके ।

बिहार में सरकार से अलग होने के बाद भाजपा अब महागठबंधन की सरकार को हर मोर्चे पर घेरने लगी है। कल तक शराबबंदी कानून को और मजबूती से लागू करने की बात कहने वाली भाजपा अब शराब पीने के आरोप में जेल में बंद लोगों की सामूहिक आजादी चाहती है।बिहार में शराबबंदी को लेकर पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि बिहार के सभी जिलों में 1 लाख से अधिक शराबबंदी से जुड़े मामले में लोग बंद हैं। इनमें 90 फीसद दलित, महादलित और आदिवासी हैं। शराब का व्यापार करने वाले माफिया को छोड़कर बाकी सभी लोगों के लिए आममाफी का ऐलान करना चाहिए। यदि वे दोबारा गलती करें तो उन पर कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। जहरीली शराब से जिन लोगों की मौत हुई है उनके परिजनों को 4-4 लाख रुपए का मुआवजा भी देना चाहिए। क्योंकि परिवार का कोई दोष नहीं है। पीने वाले तो चले गए और दलित महादलित के बच्चे अनाथ हो गए। यदि खजूरबानी की घटना में सरकार ने मृतक के परिजनों को 4-4 लाख मुआवजा दिया तो बाकी मामलों में मुआवजा क्यों नहीं दिया जा सकता है। मैं सरकार से यह मांग करूंगा कि शराबबंदी कानून के बाद शराब पीने से जिन लोगों की मौत हुई है सरकार उनके परिवार को 4 लाख मुआवजा दे। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने शराब कांड पर कहा कि ये बिहार का दुर्भाग्य है। बिहार में जब से शराब नीति चली है तब से कई हजार लोग मर गए लेकिन मुख्यमंत्री की संवेदना ही नहीं जागती।

गौरतलब है कि नीतीशबाबू कई बार अपनी शराबबंदी नीति का बचाव करने के लिए मोदी सरकार के नोटबंदी का हवाला देते है कि देखों कानून व्यवस्था को सुधारने व सुशासन के लिए कुनेन की गोली खानी पड़ती हैं । वैसे देखा जाय तो मोदी सरकार की नोटबंदी और नीतीश सरकार की शराबबंदी में मामूली फर्क ही लगता है । दोनों ही के फायदे नुकसान अपनी जगह हैं लेकिन देखने में ये आया है कि नोटबंदी लागू करने से भी भाजपा को चुनावों में कोई नुकसान नहीं हुआ और नीतीश कुमार को शराबबंदी से चुनावी फायदा जरूर मिला लेकिन जो सबसे बड़ा फर्क नजर आता है वो ये कि भाजपा के किसी भी नेता के मुंह से अब नोटबंदी का नाम तक सुनने को नहीं मिलता और नीतीश कुमार हैं कि शराबबंदी को सही साबित करने के लिए पूरी जिंदगी की राजनीतिक कमाई ही दांव पर लगा देने पर आमादा देखे जा रहे हैं । ऐसा भी नहीं कि शराबबंदी को लेकर नीतीश कुमार के सिद्धांत शुरू से एक जैसे ही रहे हैं। ये वही नीतीश कुमार हैं जो कभी कहा करते थे कि जिसे पीना है पीये, जो पैसे मिलेंगे उसे उनकी सरकार लड़कियों को साइकिल बांटने में लगा देगी। 2012 में नीतीश कुमार ने ही कहा था, अगर आप पीना चाहते हैं तो पीजिये और टैक्स पे कीजिये मुझे क्या? इससे फंड इकट्ठा होगा और उससे छात्राओं के लिए मुफ्त साइकिल की स्कीम जारी रहेगी। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले अचानक नीतीश कुमार को राजनीतिक ज्ञान प्राप्त हुआ और चुनाव जीतने के बाद 2016 में बिहार में शराबबंदी कानून लागू कर दिये। कानून बन जाने भर से अपराध तो रुकता नहीं, नतीजे तो तब मिलते हैं जब उसे तरीके से अमली जामा भी पहनाया जाये । शराबबंदी लागू करने में जब आबकारी विभाग और पुलिस महकमा फेल हो जाता है तो शिक्षकों को लेटर भेजा जाता है। अभी मार्च, 2022 में ही विधानसभा में पूछ लिया गया तो शिक्षा मंत्री विजय चैधरी ने सवाल को ही बेतूका बता दिया। दावा किये कि ऐसा कोई आदेश जारी ही नहीं किया गया। कांग्रेस विधायक प्रेमचंद्र मिश्रा के सवाल पर मंत्री का जवाब सुन कर जेडीयू सदस्य संजीव सिंह ने याद दिलाया कि कैसे 28 जनवरी, 2022 को शिक्षा विभाग के अधिकारियों को शराबबंदी रोकने के लिए पत्र भेजा गया था । संजीव सिंह का कहना रहा, मैं मंत्री के जवाब को चुनौती देता हूं। पत्र को लेकर विभाग की तरफ से खंडन जारी किया जाना चाहिये। पीने वाले तो पी ही रहे हैं जिसे जहां जो सुविधा मिल रही है, पूरा फायदा उठा रहा है । दूसरे राज्यों की सरहद से लगे इलाकों लोगों को पर तो जैसे फर्क ही नहीं पड़ा है।

बाकी इलाकों में सुविधा शुल्क की बदौलत आसानी से उपलब्ध है । ऐसे में नीतीश कुमार के पास रोक पाने का कोई ऑप्शन बचा हो, ऐसा लगता तो नहीं है।

ऊपर से सबसे बुरा असर ये हुआ है कि सीमांचल के इलाकों में नयी पीढ़ी ड्रग्स का शिकार होने लगी है । कुछ सर्वे और मीडिया रिपोर्ट से मालूम होता है कि ऐसे तमाम इलाकों के आम के बगीचों, बंद पड़ी स्कूली इमारत । ऐतिहासिक जगहों के आस पास और सुनसान जगहों पर। यहां तक कि श्मशानों के आस पास दुबले-पतले, कमजोर दिखने वाले नौजवान चलते फिरते सबूत लगते हैं। ऐसे नौजवानों की लाल लाल आंखे जमीनी हकीकत के किस्से खामोशी से सुना रही हैं - एक सर्वे के नतीजों के चैंकाने वाली ग्राउंड रिपोर्ट मिली है। और ऐसे हालात में कभी नीतीश कुमार कहते हैं कि पीयोगे तो मरोगे ही और देश भर में पीने वालों की भारतीयता पर सवाल उठाकर कह देते हैं शराब पीने वाले महापापी हैं ।

भले ही कभी लालू यादव से हाथ मिला कर तो कभी भाजपा के साथ गठबंधन कर नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने रहे हैं, लेकिन तो वहां के लोग ही हैं उनको कुर्सी पर बिठाये रखा है, वरना पड़ोसी झारखंड में ही रघुबर दास को पैदल करते लोगों को जरा भी देर नहीं लगी । लोगों को जैसे तैसे तरह तरह के सपने दिखा कर कोई भी राजनीतिक दल कुछ दिन तो सत्ता पर काबिज रह सकता है, लेकिन अवाम के मुंह मोड़ने में वक्त नहीं लगता ।

कोरोना संकट के दौरान लॉकडाउन के वक्त ये नीतीश कुमार ही रहे जो लोगों को बिहार न लौटने की सलाह देते रहे। जब किसी ने नहीं सुनी तो प्रधानमंत्री मोदी के साथ मुख्यमंत्रियों की बैठक में कहने लगे कि लोगों की वापसी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई गाइडलाइन बननी चाहिये । तब नीतीश कुमार सबसे ज्यादा परेशान उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर दिखे क्योंकि अपने लोगों को घर पहुंचाने के लिए योगी आदित्यनाथ ने फटाफट दिल्ली की सीमाओं पर बसें भेज दी थीं । बिहार में जैसे बिजली व्यवस्था सधारी गयी है, जैसे सड़कें बनवायी गयी हैं लोक कल्याण के लिए और भी काम किये जा सकते हैं । अगर शराबबंदी पर अमल करने में दिक्कतें आ रही हैं तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। आखिर प्रधानमंत्री मोदी ने कृषि कानूनों को वापस लिया कि नहीं?जेडीयू मुख्यमंत्री को चाहिये कि वो जन कल्याण के कामों पर फोकस करें क्योंकि डार्विन का सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट फॉर्मूला नीतीश कुमार पर भी उसी भाव से लागू होता है - वरना, आखिरी रास्ता तो यही है कि जैसे क्रिकेटर सही वक्त देख कर संन्यास की घोषणा कर देते हैं नीतीश कुमार को भी वक्त रहते वही रास्ता अख्तियार करना चाहिये ।
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