ज्ञान के तीन दोष-मल, विक्षेप व आवरण

ज्ञान के तीन दोष-मल, विक्षेप व आवरण

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।। 26।।

प्रश्न-काम-क्रोध से रहित बतलाने का क्या अभिप्राय है? क्या ज्ञानी महात्मा के मन-इन्द्रियों द्वारा काम-क्रोध की कोई क्रिया ही नहीं होती।

उत्तर-ज्ञानी महापुरुषों का अन्तःकरण सर्वथा परिशुद्ध हो जाता है, इसलिये उसमें काम-क्रोधादि विकार लेशमात्र भी नहीं रहते। ऐसे महात्माओं के मन और इन्द्रियों द्वारा जो कुछ भी क्रिया होती है, सब स्वाभाविक ही दूसरों के हित के लिये ही होती है। व्यवहार काल में आवश्यकतानुसार उनके मन और इन्द्रियों द्वारा यदि शास्त्रानुकूल काम-क्रोध का बर्ताव किया जाय तो उसे नाटक में स्वाँग धारण करके अभिनय करने वाले के बर्ताव के सदृश केवल लोकसंग्रह के लिये लीला मात्र ही समझना चाहिये।

प्रश्न-यहाँ ‘यति’ शब्द का क्या अर्थ है?

उत्तर-मल, विक्षेप और आवरण-ये तीन दोष ज्ञान में महान् प्रतिबन्ध रूप होते हैं। इन तीनों दोषों का सर्वथा अभाव ज्ञानी में ही होता है। यहाँ ‘कामक्रोध वियुक्तानाम्’ से मलदोषका, ‘यतचेतसाम्’ से विक्षेप दोष का और ‘विदितात्मनाम्’ से आवरण दोष का सर्वथा अभाव दिखलाकर परमात्मा के पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति बतलायी गयी है। इसलिये ‘यति’ शब्द का अर्थ यहाँ सांख्य योग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त आत्मसंयमी तत्त्वज्ञानी मानना उचित है।

प्रश्न-ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शान्त परब्रह्म ही परिपूर्ण हैं, इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-परमात्मा को प्राप्त ज्ञानी महापुुरुषों के अनुभव में ऊपर-नीचे, बाहर-भीतर, यहाँ-वहाँ सर्वत्र नित्य-निरन्तर एक विज्ञानानन्दधन परब्रह्म परमात्मा ही विद्यमान हैं-एक अद्वितीय परमात्मा के सिवा अन्य किसी भी पदार्थ की सत्ता ही नहीं है, इसी अभिप्राय से कहा गया है कि उनके लिये भी सब ओर से परमात्मा ही परिपूर्ण हैं।

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्वक्षुश्वैवान्तरे भ्रुवोः।

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ। 27।।

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।

विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।। 28।।

प्रश्न-बाहर के विषयों को बाहर निकालने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-बाह्य विषयों के साथ जीव का सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है और उसके अन्तःकरण में उनके असंख्य चित्र भरे पडे़ हैं। विषयों में सुख बुद्धि और रमणीय बुद्धि होने के कारण मनुष्य अनवरत विषय-चिन्तन करता रहता है और पूर्व संचित संस्कार जग-जगकर उसके मन में आसक्ति और कामना की आग भड़काते रहते हैं। इसलिये किसी भी समय उसका चित्त शान्त नहीं हो पाता। यहाँ तक कि वह कभी, ऊपर से विषयों का त्याग करके एकान्त देश में ध्यान करने को बैठता है तो उस समय भी, विषयों के संस्कार उसका पिण्ड नहीं छोड़ते। इसलिये वह परमात्मा का ध्यान नहीं कर पाता। इसमें प्रधान कारण है-निरन्तर होने वाला विषय-चिन्तन और यह विषय-चिन्तन तब तक बंद नहीं होता, जब तक विषयों में सुख बुद्धि बनी है। इसलिये यहाँ भगवान् कहते हैं कि विवेक और वैराग्य के बल से सम्पूर्ण बाह्य विषयों को क्षणभंगुर, अनित्य, दुःखमय और दुःखों के कारण समझकर उनके संस्कार रूप समस्त चित्रों को अन्तःकरण से निकाल देना चाहिये-उनकी स्मृति को सर्वथा नष्ट कर देना चाहिये; तभी चित्त सुस्थिर और प्रशान्त होगा।

प्रश्न-नेत्रों की दृष्टि को भृकुटि के बीच में लगाने के लिये क्यों कहा?

उत्तर-नेत्रों के द्वारा चारों ओर देखते रहने से तो ध्यान में स्वाभाविक ही विघ्न-विक्षेप होता है और उन्हें बंद कर लेने से आलस्य और निद्रा के वश हो जाने का भय है। इसीलिये ऐसा कहा गया है।

इसके सिवा योग शास्त्र सम्बन्धी कारण भी हैं। कहते हैं कि भृकुटि के मध्य में द्विदल आज्ञा चक्र है। इसके समीप ही सप्त कोश हैं, उनमें अन्तिम कोश का नाम ‘उन्मनी’ है; यहाँ पहुँच जाने पर जीव की पुनरावृत्ति नहीं होती। इसीलिये योगी गण आज्ञा चक्र में दृष्टि स्थिर किया करते हैं।

प्रश्न-यहाँ ‘प्राणापानौ’ प्राण और अपानवायु के साथ ‘नासाभ्यन्तरचारिणौ’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-यहाँ प्राण और अपान की गति को सम करने के लिये कहा गया है, न कि उनकी गति को रोकने के लिये। इसी कारण ‘नानाभ्यन्तर चारिणौ’ विशेषण दिया गया है।

प्रश्न-प्राण और अपान को सम करना क्या है और उनको किस प्रकार सम करना चाहिये?

उत्तर-प्राण और अपान की स्वाभाविक गति विषम है। कभी तो वे वाम नासिका में विचरते हैं और कभी दक्षिण नासिका में। वाम मंे चलने को इडाड़ीना में चलना और दक्षिण में चलने को पिंगला में चलना कहते हैं। ऐसी अवस्था में मनुष्य का चित्त चंचल रहता है। इस प्रकार विषम भाव से विचरने वाले प्राण और अपान की गति को दोनों नासिकाओं में समान भाव से कर देना उनको सम करना है। यही उनका सुषुम्णा में चलना है। सुषुम्णा नाडी पर चलते समय प्राण और अपान की गति बहुत ही सूक्ष्म और शान्त रहती है। तब मन की चंचलता और अशान्ति अपने-आप ही नष्ट हो जाती है और वह सहज ही परमात्मा के ध्यान में लग जाता है। प्राण और अपान को सम करने के लिये पहले वाम नासिका से अपान वायु को भीतर ले जाकर प्राण वायु को दक्षिण नासिका से बाहर निकालना चाहिये। फिर अपान वायु को दक्षिण नासिका से भीतर ले जाकर प्राण वायु को वाम नासिका से बाहर निकालना चाहिये। इस प्रकार प्राण और अपान के सम करने का अभ्यास करते समय परमात्मा के नाम का जप करते रहना तथा वायु को बाहर निकालने और भीतर ले जाने में ठीक बराबर समय लगाना चाहिये और उनकी गति को समान और सूक्ष्म करते रहना चाहिये। इस प्रकार लगातार अभ्यास करते-करते जब दोनों की गति सम, शान्त और सूक्ष्म हो जाय, नासिका के बाहर और भीतर कण्ठादि देश में उनके स्पर्श का ज्ञान न हो, तब समझना चाहिये कि प्राण और अपान सम और सूक्ष्म हो गये हैं।
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