इन्द्रियों और मन को वश में करने वाला ‘जितात्मा’ है

इन्द्रियों और मन को वश में करने वाला ‘जितात्मा’ है

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।

शीतोष्ण सुखदः खेषु तथा मानापमानयोः।। 7।।

प्रश्न-शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमान में चित्त की वृत्तियों का शान्त रहना क्या है?

उत्तर-यहाँ शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमान शब्द उपलक्षण रूप से हैं। अतएव इस प्रसंग में शरीर, इन्द्रिय और मन से सम्बन्ध रखने वाले सभी सांसारिक पदार्थों का, भावों का और घटनाओं का समावेश समझ लेना चाहिये। किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल पदार्थ, भाव, व्यक्ति या घटना का संयोग या वियोग होने पर अन्तःकरण में राग, द्वेष, हर्ष, शोक, इच्छा, भय, ईष्र्या, असूया, काम, क्रोध और विक्षेपादि किसी प्रकार का कोई विकार न हो; हर हालत में सदा ही चित्त सम और शान्त रहे; इसी को ‘शोतीष्ण, सुख-दुःख और मानापमान में चित्त की वृत्तियों का भलीभाँति शान्त रहना’ कहते हैं।

प्रश्न-‘जितात्मनः’ पद का क्या अर्थ है और इसका प्रयोग किसलिये किया गया है?

उत्तर-शरीर, इन्द्रिय और मन को जिसने पूर्ण रूप से अपने वश में कर लिया है, उसका नाम ‘जितात्मा’ है; ऐसा पुरुष सदा-सर्वदा सभी अवस्थाओं में प्रशान्त या निर्विकार रह सकता है और संसार-समुद्र से अपना उद्धार करके परमत्मा को प्राप्त कर सकता है, इसलिये वह स्वयं अपना मित्र है। यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ ‘जितात्मनः’ पद का प्रयोग किया गया है।

प्रश्न-यहाँ ‘परमात्मा’ पद किसका वाचक है और ‘समाहितः’ का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘परमात्मा’ पद सच्चिदानन्दधन परब्रह्म का वाचक है और ‘समाहितः’ पद से यह दिखलाया गया है कि उपर्युक्त लक्षणों वाले पुरुष के लिये परमात्मा सदा-सर्वदा और सर्वत्र प्रत्यक्ष परिपूर्ण है।

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।

युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाश्चनः।। 8।।

प्रश्न-यहाँ ‘ज्ञानविज्ञान तृप्तात्मा’ पद से किस पुरुष का लक्ष्य है?

उत्तर-परमात्मा के निर्गुण निराकार त़त्त्व के प्रभाव तथा महात्म्य आदि के रहस्य सहित यथार्थ ज्ञान को ‘ज्ञान’ और सगुण निराकार एवं साकार तत्त्व के लीला, रहस्य, महत्त्व, गुण और प्रभाव आदि के यथार्थ ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहते हैं। जिस पुरुष को परमात्मा के निर्गुण-सगुण, निराकार-साकार तत्त्व का भलीभाँति ज्ञान हो गया है, जिसका अन्तःकरण उपर्युक्त दोनों तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान से भलीभाँति तृप्त हो गया है, जिसमें अब कुछ भी जानने की इच्छा शेष नहीं रह गयी है, वह ‘ज्ञान विज्ञान’-तृप्तात्मा’ है।

प्रश्न-यहाँ कूटस्थः’ पद का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-सुनारों या लोहारों के यहाँ रहने वाले लोहे के ‘अहरन’ या ‘निहाई’ को ‘कूट’ कहते हैं; उस पर सोना, चाँदी, लोहा आदि रखकर हथौड़े से कूटा जाता है। कूटते समय उस पर बार-बार गहरी चोट पड़ती है; ुिर भी वह हिलता-डुलता नहीं, बरबर अचल रहता है। इसी प्रकार जो पुरुष तरह-तरह के बड़े-से-बड़े दुःखों के आ पड़ने पर भी अपनी स्थिति तनिक भी विचलित नहीं होता, जिसके अन्तःकरण में जहरा भी विकार उत्पन्न नहीं होता और जो सदा-सर्वदा अचल भाव से परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है, उसे ‘कूटस्थ’ कहते हैं।

प्रश्न-‘विजितेन्द्रियः’ का क्या भाव है?

उत्तर-संसार के सम्पूर्ण विषयों को मायामय और क्षणिक समझ लेने के कारण जिसकी किसी भी विषय में जहरा भी आसक्ति नहीं रह गयी है और इसलिये जिसकी इन्द्रियाँ विषयों मंे कोई रस न पाकर उनसे निवृत्त हो गयी है तथा लोकसंग्रह के लिये वह अपने इच्छानुसार उन्हें यथायोग्य जहाँ लगाता है वहीं लगती हैं, न तो स्वच्छन्दता से कहीं जाती है और न उसके मन में किसी प्रकार का क्षोभ ही उत्पन्न करती हैं-इस प्रकार जिसकी इन्द्रियाँ अपने अधीन हैं, वह पुरुष ‘विजितेन्द्रिय‘ है।

प्रश्न-‘समलोकष्टाश्मकाश्चनः’ का क्या भाव है?

उत्तर-मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण आदि समस्त पदार्थों में परमात्म-बुद्धि हो जाने के कारण जिसके लिये तीनों ही सम हो गये हैं; जो अज्ञानियों की भाँति सुवर्ण में आसक्त नहीं होता और मिट्टी, पत्थर आदि से द्वेष नहीं करता, सबको एक ही समान समझता है, वह ‘समलोष्टाश्मकाश्चन’ है।

सुहृन्मित्रार्युदासीन मध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्विर्विशिष्यते।। 9।।

प्रश्न-‘सुहृद्’ और ‘मित्र’ में क्या भेद है?

उत्तर-सम्बन्ध और उपकार आदि की अपेक्षा न करके बिना ही कारण स्वभावतः प्रेम और हित करने वाले ‘सुहृद्’ कहलाते हैं तथा परस्पर प्रेम और एक दूसरे का हित करने वाले ‘मित्र’ कहलाते हैं।

प्रश्न-‘अरि’ (बैरी) और ‘ेद्वेष्य’ (द्वेष पात्र) में क्या अन्तर है?

उत्तर-किसी निमित्त से बुरा करने की इच्छा चेष्टा करने वाला ‘बैरी’ है और स्वभाव से ही प्रतिकूल आचरण करने के कारण जो द्वेष का पात्र हो, वह ‘द्वेष्य’ कहलाता है।

प्रश्न-‘मध्यस्थ’ और ‘उदासीन’ में क्या भेद है?

उत्तर-परस्पर झगड़ा करने वालों में मेल कराने की चेष्टा करने वाले को और पक्षपात छोड़कर उनके हित के लिये न्याय करने वाले को ‘मध्यस्थ’ कहते हैं। तथा उनसे किसी प्रकार का भी सम्बन्ध न रखने वाले को ‘उदासीन’ कहते हैं।

प्रश्न-यहाँ ‘अपि’ का क्या अभिप्राय है?
 उत्तर-सुहृद्, मित्र, उदासीन, मध्यस्थ और साधु सदाचारी पुरुषों में एवं अपने कुटुम्बियों में मनुष्य का प्रेम होना स्वाभाविक है। ऐसे ही बैरी, द्वेष्य और पापियों के प्रति द्वेष और घृणा का होना स्वाभाविक है। विवेकशील पुरुषों में भी इन लोगों के प्रति स्वाभाविक राग-द्वेष-सा देखा जाता है। ऐसे परस्पर अत्यन्त विरुद्ध स्वभाव वाले मनुष्यों के प्रति राग-द्वेष और भेद-बुद्धि का न होना बहुत ही कठिन बात हे, उनमें भी जिसका समभाव रहता है उसका अन्यत्र समभाव रहता है इसमें तो कहना ही क्या है। यह भाव दिखलाने के लिये ‘अपि’ का प्रयोग किया गया है।
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