सकारात्मक ऊर्जा की द्योतक गोपाष्टमी

सकारात्मक ऊर्जा की द्योतक गोपाष्टमी

सत्येन्द्र कुमार पाठक सनातन धर्म संस्कृति और वैदिक साहित्य में गोपाष्टमी का उल्लेख है । सुर और असुर द्वारा समुद्रमंथन के तहत कार्तिक शुक्ल अष्टमी को कामधेनु की उत्पत्ति हुई थी । हिन्दू धर्म में कामधेनु गौ माता को पूज्य हैं। वैज्ञानिको का शोध के अनुसार गाय में सकारात्मक उर्जा निरंतर प्रवाहित और नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव से मुक्त करने का मार्ग है । गाय की रीढ़ की हड्डी में सूर्यकेतु स्नायु पाने के कारण हानिकारक विकिरण को रोक कर पर्यावरण को स्वच्छ बनाने में सक्रिय हैं । सूर्यकेतु नाड़ी सूर्य के संपर्क में आने से स्वर्ण उत्पन्न करती है। गाय के दूध, मूत्र और गोबर में मिलता है। और इन चीजों का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक रहता हैं । पृथ्वी पर गाय ऑक्सीजन ग्रहण कर ऑक्सीजन ही छोड़ता है । गाय के गोबर में विटामिन बी-12 की प्रचुर मात्रा पायी जाती है। विटामिन बी-12 रेडियोधर्मिता को सोखने में सक्षम हैं । गाय की दूध के सेवन करने से मानव जीवन का सर्वागीण विकास कर सकारात्मक ऊर्जा का संचार , गोबर से नकस्रात्मक ऊर्जा से मुक्त और गाय के मूत्र ,गोबर , दूध , दही और घी सकारात्म ऊर्जा का संचार निरंतर करता है ।देवीभागवत पुराण के अनुसार गोहत्यां ब्रह्महत्यां च करोति ह्यतिदेशिकीम्।यो हि गच्छत्यगम्यां च यः स्त्रीहत्यां करोति च ॥ २३ ॥भिक्षुहत्यां महापापी भ्रूणहत्यां च भारते।कुम्भीपाके वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ २४ ॥ समुद्रमन्थन के दौरान धरती पर दिव्य गाय की उत्पत्ति हुई | भारतीय गोवंश को माता का दर्जा दिया गया है ।शास्त्रों में गाय पूजनीय है । भगवत पुराण के अनुसार, सागर मन्थन के समय पाँच दैवीय कामधेनु नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला, बहुला निकलींथी । कामधेनु या सुरभि को संस्कृत: में कामधुक ब्रह्मा द्वारा ली गई। दिव्य वैदिक गाय (गौमाता) ऋषि को दी गई ताकि उसके दिव्य अमृत पंचगव्य का उपयोग यज्ञ, आध्यात्मिक अनुष्ठानों और संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए किया जा सके। भारत में गाय की ३० से अधिक नस्लों में लाल सिन्धी, साहिवाल, गिर, देवनी, थारपारकर आदि नस्लें भारत में दुधारू गायों की नस्लें हैं। भारतीय गाय तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है। एकांगी गाएँ दूध खूब देती और पुंसंतान अकर्मण्य कृषि में अनुपयोगी होती है। वत्स एकांगी गाएँ दूध कम देती हैं किंतु उनके बछड़े कृषि और गाड़ी खींचने के काम आते हैं। गाएँ दूध प्रचुर देती और बछड़े कर्मठ होते हैं। ऐसी गायों को सर्वांगी नस्ल की गाय कहते हैं। साहीवाल गाय का मूल स्थान पाकिस्तान में है। राजस्थान के बीकानेर,श्रीगंगानगर, पंजाब में मांटगुमरी जिला और रावी नदी के आसपास लायलपुर, लोधरान, गंजीवार आदि स्थानों में पाई जाती है। बिलोचिस्तान का केलसबेला इलाका भी इनके लिए प्रसिद्ध है। इन गायों का रंग बादामी या गेहुँआ, शरीर लंबा और चमड़ा मोटा होता है। ये दूसरी जलवायु में भी रह सकती हैं तथा इनमें रोगों से लड़ने की अद्भुत शक्ति होती है। कच्छ की छोटी खाड़ी से दक्षिण-पूर्व का भूभाग, अर्थात् सिंध के दक्षिण-पश्चिम से अहमदाबाद और रधनपुरा तक का प्रदेश, काँकरेज गायों का मूलस्थान है। सर्वांगी गाय काठियावाड़, बड़ोदा और सूरत में मिलती हैं। रंग रुपहला भूरा, लोहिया भूरा या काला होता है। टाँगों में काले चिह्न तथा खुरों के ऊपरी भाग काले होते हैं। ये सिर उठाकर लंबे और सम कदम रखती हैं। चलते समय टाँगों को छोड़कर शेष शरीर निष्क्रिय प्रतीत होता है जिससे इनकी चाल अटपटी मालूम पड़ती है। सवाई चाल से प्रसिद्ध गाय है। केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान में गाय पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार कांकरेज गाय किसानों की आमदनी बढ़ाती है। राजस्थान में सांचोरी गाय है। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जा रहा है। । गाय को हमारी संस्कृति में पवित्र माना जाता है। इसके पीछे बहुत सी किवदंतियां हैं। श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि जब देवता और असुरों ने समुद्र मंथन किया तो उसमें कामधेनु निकली। पवित्र होने पर ऋषियों ने अपने पास रख लिया। माना जाता है कि कामधेनु से ही अन्य गायों की उत्पत्ति हुई।भगवान श्रीकृष्ण भी गायों की सेवा करते थे। श्रीकृष्ण रोज सुबह गायों की पूजा करते थे और ब्राह्मणों को गौदान करते थे। महाभारत में बताया गया है कि गाय के गोबर और मूत्र में देवी लक्ष्मी का निवास है। इसलिए इन दोनों चीजों का उपयोग शुभ काम में किया जाता है। हिन्दू धर्म में गाय का महत्व होने के पीछे एक कारण है कि गाय को दिवयगुणों का स्वामी कहा गया है। उनमें की देवी देवता का निवास माना गया है। पौराणिक ग्रंथों में कामधेनु का जिक्र भी मिलता है। आइस मान्यता है कि गोपाष्टमी की पूर्व संध्या पर गाय की पूजा करने वाले लोगों को सुख समृद्धि और सौभाग्य प्राप्त होता है।
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