बज उठे चतुर्दिक सुख-सरगम
निज विवेक खोकर मानव, तुमने यह क्या कर डाला है?
अमृत को ठुकरा कर के, अपनाया विष का प्याला है।।
लिप्त हुए हो दिवस-रात तुम घृणित वासनाओं में।
सुलभ हुआ स्वर्गिक वैभव भौतिक सुख-सुविधाओं में।।
पर क्या तुमने देखा हाल गरीबों की संतानों का?
भूखे पेट तड़पते उन मजदूरों, विवश किसानों का?
फटे चीथड़ों में लिपटी बेबस बहनों, माताओं का?
निर्धनता की ज्वाला में झुलसी सुकुमार लताओं का?
देख तड़पता दूजों को तुम मन ही मन हर्षाते हो।
स्वार्थ-सिद्ध करने की धुन में जीवन व्यर्थ गंवाते हो।।
कटु सत्य यही है, तुमको पैसा प्राणों से भी प्यारा है।
पर निष्ठुर बन बैठे रहना ही क्या कर्तव्य तुम्हारा है?
मानव सेवा हरि-सेवा है, ऋषि-मुनियों का यह नारा है।
जीवन का है संदेश यही, दलितों का यही सहारा है।।
तुम राम, कृष्ण के वंशज हो, तुम नारायण के अंश पार्थ!
उपकार करो जगवालों का, तज डालो मन से अधम स्वार्थ।।
है निखिल विश्व हरि का मंदिर, पूजा है दुखियों की सेवा।
जो देता सबको स्नेह, उसे ही मिले मोक्ष का मधु मेवा।।
जो मानव जनकर्त्तव्य-पंथ पर अपने कदम बढ़ाता है।
वह नश्वर तन पाकर भी जग में सहज अमर हो जाता है।।
है समय नहीं बिगड़ा अब भी, कर जाओ जन्म सफल अपना।
भागीरथ-सा उद्यम कर पूर्ण करो वसुंधरा का सपना।।
ले आओ अपनी धरती पर फिर से वह रामराज्य अनुपम।
हो क्लेशमुक्त यह मानवता, बज उठे चतुर्दिक सुख-सरगम।।
✍️कवयित्री -डॉ. रश्मि प्रियदर्शनी, असिस्टेंट प्रोफेसर, डिपॉर्टमेंट आॅफ इंग्लिश, गौतम बुद्ध महिला काॅलेज, गया (मगध यूनिवर्सिटी, बोधगया)
- राष्ट्रीय प्रवक्ता-सह-प्रसारण प्रभारी, 'शब्दाक्षर'
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