मुआवजा आवंटन-मालेमुफ्त-दिले बेरहम

मुआवजा आवंटन-मालेमुफ्त-दिले बेरहम

(राज सक्सेना-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
भारतीय राजनीति की यह कैसी विडम्बना है कि, जनता के पैसे को अपना पैसा समझ कर ये सारे दल जो स्वयं को सारी छूटों का पर्याय बनाकर, जनता से विभिन्न माध्यमों से एकत्रित की गयी उनकी गाढ़ी कमाई का टैक्स के रूप में लिये गये पैसे को इस तरह लुटाते हैं कि कभी-कभी तो बड़ा अफसोस होता है कि हमने ये कैसे प्रतिनिधि चुने हैं?
उदाहरण के लिए किसी घटना, दुर्घटना या काण्ड के होने पर जिस तरह मुआवजा दिए जाने में अपने विवेक का प्रयोग राजगद्दियों पर बैठे नेता जिस तरह करते हैं, उससे साफ झलकता है कि इसमें दुर्भावना का एक बड़ा अंश है। जैसे कि मुजफ्फर नगर दंगों के समय तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा केवल अल्पसंख्यकों के लिए मुआवजे की घोषणा की गयी, जिसे सब प्रभावितों पर कोर्ट के आदेश पर लागू किया गया था। इसी प्रकार किसी एक तरह की घटना या दुर्घटना पर विभिन्न दलों द्वारा दी जाने वाली मुआवजा राशि दिए जाने में पक्षधारिता साफ झलक जाती है।
उदाहरण के तौर पर दिल्ली सरकार द्वारा केंद्र सरकार की सेना पेंशन योजना के विरोध में हरियाणा से आकर दिल्ली में आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को एक करोड़ रूपये का मुआवजा दिया गया जिसे किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता। आत्म हत्या जैसे आपराधिक कृत्य के लिए मुआवजा किसी भी दशा में उचित कहा ही नहीं जा सकता। इसी प्रकार आम आदमी पार्टी के विरोध प्रदर्शन की सभा में सबके सामने आत्महत्या करने वाले राजस्थान के दौसा के रहने वाले व्यक्ति को मुआवजे की घोषणा क्या गलत नहीं थी। क्या सबके सामने इन लोगों को आत्महत्या करने देना और उस कृत्य के प्रति मुआवजा देना एक अपराध को ‘ग्लैमराइज’ करना नहीं था? इसी तरह इसी सरकार का एक धर्म विशेष के व्यक्ति की मावलिंचिंग पर मुआवजा देना और किसी अन्य की मावलिंचिंग पर चुप्पी साध लेना क्या ‘पक्षधरता’ नहीं है।

इसी तरह मनुष्य त्रुटिजनित घटनाओं, दुर्घटनाओं पर सरकारें तुरंत मुआवजे की घोषणा करके मामला शांत करने का प्रयास करती हैं और उस व्यक्ति या संस्थान जिसके कर्मचारी या कर्मचारियों के कारण घटना या दुर्घटना हुयी है, उसके प्रति कोई तात्कालिक कार्यवाही नहीं की जाती? जिससे साफ झलकता है कि नेता जनता की गाढ़ी कमाई से इकट्ठा की गयी टैक्स की राशि को अपने पदासीन होने की ‘सौभाग्यता’ के कारण अपनी समझ कर दुरूपयोग करते हैं। होना तो यह चाहिए कि यदि किसी व्यक्ति की गलती के कारण कोई दुर्घटना होती है तो, उस व्यक्ति, उसकी सम्पत्ति अथवा उसके संस्थान से उसकी भरपाई की जाय ताकि आगे चल कर सारे संस्थान सतर्क होकर योग्य कर्मचारी रखें और कर्मचारी सतर्कता से कार्य करें।

इसके अतिरिक्त सरकारों पर भी कोई नियन्त्रण होना चाहिए कि वे अपनी सीमाओं से बाहर जाकर ऐसे कोई मुआवजे घोषित न करें जिनसे पक्षधारिता झलकती हो, या वे अपनी सीमाओं से बाहर जाकर मुआवजे जारी करें। जैसे कि हाल के कुछ वर्षों में प्रचलन बढ़ा है। उदाहरण स्वरूप हरियाणा-दिल्ली बार्डर पर बैठे आंदोलनकारियों में स्वाभाविक मृत्यु प्राप्त और बीमारी से मरे और उप्र में किसान आंदोलन में ‘कार’ से कुचले गये किसानों को तो अपनी सीमाओं से बाहर जाकर करोड़ों रुपया मुआवजा दिया गया किन्तु पंजाब सरकार द्वारा आंदोलनकारियों द्वारा मारे गये पीड़ितों को कोई मुआवजा नहीं दिया गया। क्या यह पक्षधारिता का स्पष्ट उदाहरण नहीं है। इस प्रक्रिया को अगर अभी बंद नहीं किया गया तो यह समस्या विकराल रूप ले सकती है।

ताजा घटना के रूप में पिछले सप्ताह गुजरात के मोरवी में हुयी रोपब्रिज दुर्घटना में कर्मचारियों द्वारा बिना कार्य समाप्ति का ‘कम्पलीशन सर्टिफिकेट’ प्राप्त किये, सीमा से दस गुना अधिक टिकट जारी करने के कारण हुयी दुर्घटना के चलते एक सौ चालीस के करीब लोगों की मृत्यु हुयी, जिन्हें गुजरात सरकार द्वारा चार चार लाख रुपये मुआवजे की घोषणा की गयी और घायलों को पचास पचास हजार की घोषणा भी हुयी। इस प्रकार कुल मिला कर कई करोड़ मुआवजा दिया जाएगा। जिनकी गलती से यह हुआ उन कर्मचारियों को भी हिरासत में लिया गया। मगर यह नहीं सोचा गया कि बिना वसूली का ठेका लेने वाली कम्पनी ‘ओरेवा’ के आदेश के कर्मचारी टिकट जारी नहीं कर सकते थे? होना तो यह भी चाहिए था कि कम्पनी मालिकों को भी हिरासत में लिया जाना चाहिए था और उनसे मुआवजे की धनराशि के समतुल्य राशि का हर्जाना लिया जाना चाहिए था। मगर ऐसा नहीं किया गया। यह जनता के पैसे का उचित प्रयोग तो नहीं कहा जा सकता?

उचित तो यह होगा कि सरकार केवल प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित व्यक्तियों को ही अपने स्तर से मुआवजा जारी करे। अन्य मानवजनित गलतियों के कारण होने वाली दुर्घटनाओं के पीड़ितों को मुआवजे तो दे मगर उस राशि की वसूली सम्बन्धित कर्मचारी, कर्मचारियों और उनके उच्चाधिकारियों, जिनके निरीक्षण में वे काम कर रहे थे, के वेतनों से की जाय। इससे भविष्य में होने वाली दुर्घटनाओं में कर्मचारियों की सतर्कता के कारण कमी तो आएगी ही, उनका पुनरनिरीक्षण भी समय समय पर होता रहेगा।

यह सही है कि दुर्घटनाएं किसी भी दशा में समाप्त नहीं हो सकतीं और पीड़ित को तात्कालिक राहत के रूप में मुआवजा देना भी नहीं रोका जा सकता। किन्तु किसको कब, कितना और कैसा मुआवजा दिया जाय इसके लिए राज्य सरकारों के विवेक पर इसे न छोड़कर, एक ‘राष्ट्रीय मुआवजा आयोग’ बनाया जाय, जो यह तय करे कि किस प्रकार की घटना अथवा दुर्घटना से पीड़ित व्यक्ति या संस्था को कब, कितना और कैसा मुआवजा दिया जाय। आयोग यह भी तय करे कि किसकी गलती से घटना अथवा दुर्घटना घटी और इसमें किस-किस का कितना-कितना दोष था? इसके बाद ही सरकार यह तय करे कि उसके द्वारा किस किस के विरुद्ध कौन कौन सी कार्यवाही की जानी चाहिए और किस किस से कितनी कितनी मुआवजे की प्रतिपूर्ति वसूल की जानी चाहिए। ताकि जनता की खून पसीने की कमाई का दुरूपयोग कुछ लापरवाह और गैर जिम्मेवार राजनीतिबाजों के हाथों होने से रोका जा सके।
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