तृष्णा आकांक्षाओं का सागर
कामनाओं का ज्वार सा उठने लगा
आकांक्षाओं का सागर ले रहा हिलोरे
अभिलाषा विस्तार लेने लगी प्रतिफल
मन की तृष्णा जो कभी खत्म नहीं होती
कुछ पा लेने की इच्छा जैसे जागी
कुछ करके समझने लगे बड़भागी
तमन्नायें हंसी ख्वाब सा देखने लगी
तृष्णाओ ने घेर लिया ज्यों मन को
भूल गया नर सब कुछ नाशवान है
संचय लालसा ने मतिभ्रम कर दिया
क्षणभंगुर है चंद सांसों का यह खेल
तृष्णा के मोह माया जाल में जकड़ा
रमाकांत सोनी सुदर्शननवलगढ़ जिला झुंझुनू राजस्थान
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