अर्जुन को आत्मतृप्त बनने का उपदेश

अर्जुन को आत्मतृप्त बनने का उपदेश

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘आत्मतृप्तः‘ विशेषण का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि परमात्मा को प्राप्त पुरुष पूर्ण काम हो जाता है, उसके लिये कोई भी वस्तु प्राप्त करने योग्य नहीं रहती तथा किसी भी सांसारिक वस्तु की उसे किंचित मात्र भी आवश्यकता नहीं रहती, वह परमात्मा के स्वरूप में अनन्य भाव से स्थित होकर सदा के लिये तृप्त हो जाता है।

प्रश्न-‘आत्मनि एवं संतुष्ट‘ विशेषण का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि परमात्मा को प्राप्त पुरुष नित्य-निरन्तर परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, संसार का कोई बड़े-से-बड़ा प्रलोभन भी उसे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकता, उसे किसी भी से या किसी भी घटना से किंचित मात्र भी असन्तोष नहीं हो सकता, संसार की किसी भी वस्तु से उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता, वह सदा के लिये हर्ष-शोकादि विकारों से सर्वथा अतीत होकर सच्चिदानंदधन परमात्मा में निरन्तर सन्तुष्ट रहता है।

प्रश्न-उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त विशेषणों से युक्त महापुरुष परमात्मा को प्राप्त है, अतएव उसके समस्त कर्तव्य समाप्त हो चुके हैं, वह कृतकृत्य हो गया है; क्योंकि मनुष्य के लिये जितना भी कर्तव्य का विधान किया गया है, उस सबका उद्देश्य केवल मात्र एक परम कल्याण स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करना है; अतएव वह उद्देश्य जिसका पूर्ण हो गया, उसके लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता उसके कर्तव्य की समाप्ति हो जाती है।

प्रश्न-तो क्या ज्ञानी पुरुष कोई भी कर्म नहीं करता?

उत्तर-ज्ञानी का मन-इन्द्रियों सहित शरीर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता, इस कारण वह वास्तव में कुछ भी नहीं करता; तथापि लोकदृष्टि में उसके मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा पूर्व के अभ्यास से प्रारब्ध के अनुसार शास्त्रानुकूल कर्म होते रहते हैं। ऐसे कर्म ममता, अभिमान, आसक्ति और कामना से सर्वथा रहित होने के कारण परम पवित्र और दूसरों के लिये आदर्श होते हैं, ऐसा होेते हुए भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि ऐेसे पुरुष पर शास्त्र का कोई शासन नहीं है।

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।। 18।।

प्रश्न-उस महापुरुष का कर्म करने से या न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता, यह कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-पूर्व श्लोक में जो यह बात कही गयी है कि ज्ञानी पुरुष का कोई कर्तव्य नहीं रहता, उसी बात को पुष्ट करने के लिये इस वाक्य में उसके लिये कर्तव्य के अभाव का हेतु बतलाते हैं। अभिप्राय यह है कि वह महापुरुष निरन्तर परमात्मा के स्वरूप में सन्तुष्ट रहता है, इस कारण न तो उसे किसी भी कर्म के द्वारा कोई लौकिक या पारलौकिक प्रयोजन सिद्ध करना शेष रहता है और न कि इसी प्रकार कर्मों के त्याग द्वारा ही कोई प्रयोजन सिद्ध करना शेष रहता है; क्योंकि उसकी समस्त आवश्यकताएँ समाप्त हो चुकी हैं, अब उसे कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहा है। इस कारण उसके लिये न तो कर्मों का करना विधेय है और न उनका न करना ही विधेय है, वह शास्त्र के शासन से सर्वथा मुक्त है। यदि उसके मन, इन्द्रियों के संघात रूप शरीर द्वारा कर्म किये जाते हैं तो उसे शास्त्र उन कर्मों का त्याग करने के लिये बाध्य नहीं करता और यदि नहीं किये जाते तो उसे शास्त्र कर्म करने के लिये भी बाध्य नहीं करता।

अतएव ज्ञानी के लिये यह मानने की कोई आवश्यकता नहीं है कि ज्ञान होने के बाद भी जीवन मुक्ति का सुख भोगने के लिये ज्ञानी को कर्मों के त्याग का अनुष्ठान करने की आवश्यकता है; क्योंकि ज्ञान होने के अनन्तरमन और इन्द्रियों के आराम रूप तुच्छ सुख से उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता, वह सदा के लिये नित्यानन्द में मग्न हो जाता है एवं स्वयं आनन्द रूप बन जाता है। अतः जो किसी सुख-विशेष की प्राप्ति के लिये अपना ‘ग्रहण’ या ‘त्याग’ रूप कर्तव्य शेष मानता है, वह वास्तव में ज्ञानी नहीं है, किन्तु किसी स्थिति विशेष को ही ज्ञान की प्राप्ति समझकर अपने को ज्ञानी मानने वाला है। सतरहवें श्लोक में बतलाये हुए लक्षणों से युक्त ज्ञानी में ऐसी मान्यता के लिये स्थान नहीं है। इसी बात को सिद्ध करने के लिये भगवान ने उत्तर गीता में भी कहा है-

ज्ञानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः।

न चास्ति किंचित कर्तव्यमस्ति चेन्न स तत्ववित्।।

अर्थात् जो ज्ञानी ज्ञानरूप अमृत से तृप्त और कृतकृत्य हो गया है, उसके लिये कुछ भी कर्तव्य नहीं है। यदि कुछ कर्तव्य है तो वह तत्वज्ञानी नहीं है।

प्रश्न-सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचित मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ज्ञानी का जैसे कर्म करने और न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता, वैसे ही उसका स्थावर-जंगम किसी प्राणी से भी किंचित मात्र भी कोई प्रयोजन नहीं रहता। अभिप्राय यह है कि जिसका देहाभिमान सर्वथा नष्ट नहीं हो गया है एवं जो परमात्मा की प्राप्ति के लिये साधन कर रहा है, ऐसा साधक यद्यपि अपने सुख-भोग के लिये कुछ भी नहीं चाहता तो भी शरीर निर्वाह के लिये किसी-न-किसी रूप में उसका अन्य प्राणियों से कुछ-न-कुछ स्वार्थ सम्बन्ध रहता है। अतएव उसके लिये शास्त्र के आज्ञानुसार कर्मों का ग्रहण-त्याग करना कर्तव्य है। किन्तु सच्चिदानन्द परमात्मा को प्राप्त ज्ञानी का शरीर में अभिमान न रहने के कारण उसे जीवन की भी परवाह नहीं रहती; ऐसी स्थिति में उसके शरीर का निर्वाह प्रारब्धानुसार अपने-आप होता रहता है। अतएव उसका किसी भी प्राणी से किसी प्रकार का स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता; और इसीलिये उसका कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता, वह सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है।

प्रश्न-ऐसी स्थिति में उसके द्वारा कर्म क्यों किये जाते हैं? उत्तर-कर्म किये नहीं जाते, प्रारब्धानुसार लोकदृष्टि से उसके द्वारा लोक संग्रह के लिये कर्म होते हैं; वास्तव में उसका उन कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता। इसीलिये उन कर्मों को ‘कर्म’ ही नहीं माना गया है।
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