श्राद्ध सनातन जन जीवन का एक अनिवार्य अंग:-डॉक्टर चंद्रशेखर मिश्र

श्राद्ध सनातन जन जीवन का एक अनिवार्य अंग:- डॉक्टर चंद्रशेखर मिश्र

पितृ श्राद्ध , पितृ यज्ञ या पूर्वजों की तृप्ति पर्व वह आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धा से विधिपूर्वक किए गए श्राद्ध तर्पण, दान, आदि से सुख शांति समृद्धि वंश वृद्धि आरोग्य की प्राप्ति होती है।
आत्मा के द्वारा ही आत्मा की मुक्ति का मार्ग मिलता है। इस सृष्टि में जो कुछ भी ज्ञान कर्म और भोग का कर्म चल रहा है, कभी भी एक के पास दूसरे का विच्छेद भाव नहीं है। इसी में सृष्टि की सार्थकता है। पितृ श्राद्ध के इस पुण्य पर्व पर हम मृत्यु पश्चात भी जनक जननी के प्रति यथा शक्ति अपनी श्रद्धा द्वारा कर्तव्य का निर्वहन करते हैं। उनका ध्यान कर चिंतन मनन और पूजन कर मृत प्राणियों के पाप- ताप जीवन की मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त करना भारतीय सनातन जन जीवन का एक अनिवार्य अंग रहा है। यद्यपि अब इस परंपरा में शिथिलता आ गई है, फिर भी अनेक धर्म प्राण हिंदू आज के इस वैज्ञानिक या अणु- युग में मानव लाख पदार्थ वादी अविश्वासी या कुतर्की होकर भले ही आचार और विचार में अत्यंत उच्छृंखल शिखर तथाकथित सुख पर प्राण देने वाला तथा कथित सुख पर प्राण देने वाला तथा सच्चे श्रेय सुख की अपेक्षा करने वाला बन गया है वह उदयन शक्ति केंद्रों का रहस्योद्घाटन करने के पश्चात ऐसे ज्ञान अंधकार की ओर अग्रसर हो रहा है जहां से उद्धार पाना कठिन ही नहीं असंभव भी है। क्योंकि आजकल के तथाकथित वैज्ञानिकों ने अपने उपकरणों द्वारा तथा ज्ञान इंद्रियों द्वारा संचित ज्ञान के आधार पर एक ऐसा संसार खड़ा कर रखा है जो कि केवल मात्र अनुमानों पर आश्रित है।
एक वैज्ञानिक समझता है कि जिस युक्ति से उसका समाधान नहीं हो पाता अथवा जो वस्तु से असंभव प्रतीत होती है उसके विषय में शेष मानव जाति की धारणा भी वही है और वही होनी चाहिए यह सोचना कि एक आविरभूति जो उसकी समझ से परे है वह शेष सबके लिए भी वैसे ही है। किंतु यह सत्य नहीं है। क्योंकि जिन मौलिक नियमों के अनुसार ब्रम्हांड और उसके वासियों का नियंत्रण हो रहा है उन्हें खोजने का श्रेय प्राचीन हिंदुओं को ही प्राप्त है प्रातः स्मरणीय हमारे ऋषि महर्षियों के पास एक बहुत सूक्ष्म विश्वसनीय और व्यापक साधन था जिससे प्राकृतिक आबीरभूतियों का निरीक्षण किया जा सकता था वह दिव्य दृष्टि योग अथवा चतुराशा व्यापी चैतन्य के साथ कार्य करने की योग्यता थी, जिसका आज सर्वथा अभाव दृष्टिगोचर हो रहा है। इसी परम चैतन्य को परम ब्रह्म भी कहते हैं। परात्पर ब्रह्म उससे भी अधिक व्यापक तत्व है जिसके साक्षात को ही मोक्ष कहा जाता है। मानव के पिंड और चेतना को तथा सभी सगात्र प्राणियों को गर्भाधान के समय से ही ग्रह नक्षत्रों से आने वाली रश्मियां तथा आकाश मंडल में व्याप्त युग- युग की विचारधाराएं प्रभावित करती हैं। और मानव उस अलक्ष्य पराशक्ति के साक्षात्कार करने के लिए उठता है जो इस समस्त सृष्टि का नियामिका है। ऐसी स्थिति में मान्यता है कि प्राकृतिक शक्ति जो सभी प्राणियों की अभीष्ट सिद्धि के लिए तत्पर रहती है सहायता करती है वह सात्विक विचार धाराएं जो आकाश मंडल में व्याप्त है उसकी ओर प्रवाहित होती है और वह उस प्राणी के भाव अनुरूप किसी ज्ञानी पुरुष कराए गए नियमानुसार श्राद्ध तर्पण आदि से पितृ देवो को संतुष्ट करते हैं वे पुत्र पृथ्वी पर धन्य है। डॉ चंद्रशेखर मिश्र संरक्षक भारतीय राष्ट्रीय ब्राह्मण महासभा एवं कौटिल्य मंच, नई दिल्ली
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