अर्जुन की कायरता पर प्रहार

अर्जुन की कायरता पर प्रहार

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

तम् तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णां कुलेक्षणम्।

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाज मधुसूदनः ।। 1।।

प्रश्न-‘तम्’ पद यहाँ किसका वाचक है एवं उसके साथ ‘तथा कृपयाविष्टम‘, ‘अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्’ और ‘विषीदन्तम्‘-इन तीन विशेषणों के प्रयोग का क्या भाव है?

उत्तर-पहले अध्याय के अन्त में जिनके शोकमग्न होकर बैठ जाने की बात कही गयी है, उन अर्जुन का वाचक यहाँ ‘तम्’ पद है और उसके साथ उपर्युक्क्त विशेषणों का प्रयोग करके उनकी स्थिति का वर्णन किया गया है। अभिप्राय यह है कि पहले अध्याय में जिसका विस्तारपूर्वक वर्णन हो चुका है, उस बन्धुस्नेहजनित करुणायुक्त कायरता के भाव से जो व्याप्त है, जिनके नेत्र आँसुओं से पूर्ण और व्याकुल हैं तथा जो बन्धु-बान्धवों के नाश की आशंका से एवं उन्हें मारने में भयानक पाप होने के भय से शोक में निमग्न हो रहे हैं, ऐसे अर्जुन से भगवान् बोले।

प्रश्न-यहाँ ‘मधुसूदन’ नाम के प्रयोग का और ‘वाक्यम्’ के साथ ‘इदम’ पद के प्रयोग का भाव है?

उत्तर-भगवान् के ‘मधुसूदन’ नाम का प्रयोग करके तथा ‘वाक्यम्’ के साथ ‘इदम्’ विशेषण देकर संजय ने धृतराष्ट्र को चेतावनी दी है। अभिप्राय यह है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने पहले देवताओं पर अत्याचार करने वाले ‘मधु’ नाम के दैत्य को मारा था, इस कारण इनका नाम ‘मधुसूदन’ पड़ा; वे ही भगवान् युद्ध से मुँह मोड़े हुए अर्जुन को ऐसे (आगे कहे जाने वाले) वचनों द्वारा युद्ध के लिए उत्साहित कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में आपके पुत्रों की जीत कैसे होगी, क्योंकि आपके पुत्र भी अत्याचारी हैं और अत्याचारियों का विनाश करना भगवान् का काम है; अतएव अपने पुत्रों को समझाकर अब भी आप सन्धि कर लें, इनका संहार रुक जाय।

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।

अनार्यजुष्टमस्वग्र्यमकीर्तिकरमर्जुन ।। 2।।

प्रश्न-‘इदम’ विशेषण के सहित ‘कश्मलम्’ पद किसका वाचक है? तथा ‘तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ’ इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘पदम’ विशेषण के सहित ‘कश्मलम’ पद यहाँ अर्जुन के मोह जनित शोक और कातरता का वाचक है तथा उपर्युक्त वाक्य से भगवान् ने अर्जुन को डाँटते हुए उनसे आश्चर्य के साथ यह पूछा है कि इस विषम स्थल में अर्थात कायरता और विषाद के लिये सर्वथा अनुपयुक्त रणस्थली में और ठीक युद्धारम्भ के अवसर पर, बड़े-बड़े महारथियों को सहज ही पराजित कर देने वाले तुम-सरीखे शूरवीर में, जिसकी जरा भी संभावना न थी, ऐसा यह मोह (कातर भाव) कहाँ से आ गया?

प्रश्न-उपर्युक्त ‘मोह’ (कातरभाव) को ‘अनार्यजुष्ट’, अस्वग्र्य’ और ‘अकीर्तिकर’ कहने का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान ने अपने उपर्युक्त आश्चर्य को सहेतुक बतलाया है। अभिप्राय यह है कि तुम जिस भाव से व्याप्त हो रहे हो, यह भाव न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा सेवित है, न स्वर्ग देने वाला है और न कीर्ति ही फैलाने वाला है। इससे न तो मोक्ष की सिद्धि हो सकती है, न धर्म तथा अर्थ और भोगों की ही। ऐसी अवस्था में बुद्धिमान् होते हुए भी तुमने इस मोह को (कातरभाव को) कैसे स्वीकार कर लिया?

कैल्व्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।

क्षुदं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।। 3।।

प्रश्न-‘पार्थ’ सम्बोधन के सहित नपुंसकता को मत प्राप्त हो और तुझ में यह उचित नहीं जान पड़ती-इन दोनों वाक्यों का क्या भाव है?

उत्तर-कुन्ती का दूसरा नाम पृथा था। कुन्ती वीरमाता थीं। जब भगवान् श्रीकृष्ण दूत बनकर कौरव-पाण्डवों की सन्धि कराने के लिये हस्तिानपुर गये और अपनी बुआ कुन्ती से मिले, उस समय कुन्ती ने श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को वीरतापूर्ण सन्देश भेजा था, उसमें विदुर और उनके पुत्र संजय का उदाहरण देकर अर्जुन को युद्ध के लिये उत्साहित किया था। अतः यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ‘पार्थ’ नाम से सम्बोधित करके माता कुन्ती के उस क्षत्रियोचित सन्देश की स्मृति दिलाते हुए उपर्युक्क्त दोनों वाक्यों द्वारा यह सूचित किया है कि तुम वीर जननी के वीर पुत्र हो, तुम्हारे अंदर इस प्रकार की कायरता का संचार सर्वथा अनुचित है। कहाँ महान्-से महान् महारथियों के हृदयों को कँपा देने वाला तुम्हारा अतुल शौर्य? और कहाँ तुम्हारी यह दीन स्थिति?-जिसमें शरीर के रोंगटे खड़े हैं, बदन काँप रहा है, गाण्डीव गिरा जा रहा है और चित्त विषाद-मग्न होकर भ्रमित हो रहा है। ऐसी कायरता और भीरुता तुम्हारे योग्य कदापि नहीं है।

प्रश्न-यहाँ ‘परन्तप’ सम्बोधन का क्या भाव है?

उत्तर-जो अपने शत्रुओं को ताप पहँुचाने वाला हो, उसे ‘परन्तप’ कहते हैं। अतः यहाँ अर्जुन को ‘परन्तप’ नाम से सम्बोधित करने का यह भाव है कि तुम शत्रुओं को ताप पहुँचाने वाले प्रसिद्ध हो। निवातकवचादि असीम शक्तिशाली दानवों को अनायास ही पराजित कर देने वाले होकर आज अपने क्षत्रिय स्वभाव के विपरीत इस कापुरुषोचित कायरता को स्वीकार कर उल्टे शत्रुओं को प्रसन्न कैसे कर रहे हो?

प्रश्न-‘क्षुद्रम्’ विशेषण के सहित ‘हृदयदौर्वल्यम’ पद किस भाव का वाचक है? ओर उसे त्याग कर युद्ध के लिये खड़ा होने के लिये कहने का क्या भाव है? उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम्हारे-जैसे वीर पुरुष के अन्तःकरण में रणभीरु काया प्राणियों के हृदय में रहने वाली, शूरजनों के द्वारा सर्वथा, त्याज्य, इस तुच्छ दुर्बलता का प्रादुर्भाव किसी प्रकार भी उचित नहीं है। अतएव तुरंत इसका त्याग करके तुम युद्ध के लिये डटकर खड़े हो जाओ।
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