कृष्ण ने मधु दैत्य का किया वध, कहलाए मधुसूदन

कृष्ण ने मधु दैत्य का किया वध, कहलाए मधुसूदन

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।

गीता अर्जुन और श्री कृष्ण के बीच संवाद है लेकिन सच्चाई यह है कि भगवान श्री कृष्ण के माध्यम से योगेश्वर एवं काल रूप परमेश्वर ने विश्व को ज्ञान दिया है। प्रथम अध्याय में महाभारत के महारथियों का परिचय, सेनी की व्यूह रचना, आतताई और महापाप आदि पर प्रकाश डाला गया है। यह अर्जुन के मोह ग्रस्त होने की कहानी है जबकि दूसरे आधार से भगवान कृष्ण अर्जुन के मोह को कैसे दूर करते है, यह बताया गया है। -प्रधान सम्पादक



कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।

इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।। 4।।

प्रश्न-‘इस श्लोक में ‘अरिसूदन’ और ‘मधुसूदन’ इन दो सम्बोधनों के सहित ‘कथम्’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?

उत्तर-मधु नाम के दैत्य को मारने के कारण भगवान् श्रीकृष्ण को मधुसूदन कहते हैं और वैरियों का नाश करने के कारण वे अरिसूदन कहलाते हैं। इन दोनों नामों से सम्बोधित करते हुए इस श्लोक में ‘कथम्’ पद का प्रयोग करके अर्जुन ने आश्चर्य का भाव प्रकट किया है। अभिप्राय यह है कि आप मुझे जिन भीष्म और द्रोणादि के साथ युद्ध करने के लिये प्रोत्साहन दे रहे हैं वे न तो दैत्य हैं और न शत्रु ही हैं, वरं वे तो मेरे पूज्यनीय गुरुजन हैं; फिर अपने स्वाभाविक गुणों के विरुद्ध आप मुझे गुरुजनों के साथ युद्ध करने के लिये कैसे कह रहे हैं। यह घोर पाप कर्म मैं कैसे कर सकूँगा?

प्रश्न-‘इषुभि’ पद का क्या भाव है?

उत्तर-‘इषु’ कहते हैं बाण को। यहाँ ‘इषुभि;’ पद का प्रयोग करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जिन गुरुजनों के प्रति वाणी से छलके वचनों का प्रयोग भी महान् पातक बतलाया गया है, उन पर तीक्ष्ण बाणों का प्रहार करके मैं उनसे लड़ कैसे सकूँगा। आप मुझे इस घोर पापाचार में क्यों प्रवृत्त कर रहे हैं?

गुरूनहत्वा हि महानुभावा´छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।

हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुज्जीय भोगान् रुधिर प्रदिृग्धान्।। 5।।

प्रश्न-‘महानुभावान्’ विशेषण के सहित ‘गुरून्’ पद यहाँ किनका वाचक है?

उत्तर-दुर्योधन की सेना में जो द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि अर्जुन के आचार्य तथा बाव्हीक, भीष्म, सोमदत्त, भूरिश्रवा और शल्य आदि गुरुजन थे, जिनका भाव बहुत ही उदार और महान था, उन श्रेष्ठ पूज्य पुरुषों का वाचक ‘महानुभावान्’ विशेषण सहित ‘गुरून्’ पद है।

प्रश्न-यहाँ ‘भैक्ष्यम्’ के साथ ‘अपि’ पद का प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया गया है?

उत्तर-इसका यह भाव है कि यद्यपि क्षत्रियों के लिये भिक्षा के अन्न से शरीर-निर्वाह करना निन्द्य है, तथापि गुरूजनों का संहार करके राज्य भोगने की अपेक्षा तो वह निन्द्य कर्म भी कहीं अच्छा है।

प्रश्न-‘भोगान्’ के साथ ‘रुधिर प्रदिग्धान्’ और ‘अर्थकामान्’ विशेषण देने का तथा ‘एव’ अव्यय के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जिन गुरूजनों को मारना सर्वथा अनुचित है, उनको मारकर भी मिलेगा क्या? न तो मुक्ति ही होगी और न धर्म की सिद्धि ही; केवल इसी लोक अर्थ और कामरूप तुच्छ भोग ही तो मिलेंगे, जिनका मूल्य इन गुरुजनों के जीवन के सामने कुछ भी नहीं है। और वे भी गुरूजनों की हत्या के फलस्वरूप होने के कारण एक प्रकार से उनके रक्त से सने हुए ही होंगे, अतएव ऐसे भोगों को प्राप्त करने के लिये गुरूजनों का वध करना कदापि उचित नहीं है।

प्रश्न-‘अर्थकामान्’ पद को यदि ‘गुरून्’ का विशेषण मान लिया जाय तो क्या हानि है?

उत्तर-यदि ‘गुरून’ के साथ ‘महानुभावान्’ विशेषण न होता तो ऐसा भी माना जा सकता था; किन्तु एक ही श्लोक में जिन गुरूजनों को अर्जुन पहले ‘महानुभाव’ कहते हैं, उन्हीं को पीछे से ‘अर्थकामान्’ धन के लोभी बतलावें, ऐसी कल्पना उचित नहीं मालूम होती। दोनों विशेषण परस्पर विरुद्ध जान पड़ते हैं, इसीलिये ‘अर्थकामान्’ पद को ‘गुरून्’ का विशेषण नहीं माना गया है।

न चैतद्विùः कतरन्नौ गरीयो यद्धा जयेम यदि वा नो जयेयुः।

यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्रा।। 6।।

प्रश्न-‘हमारे लिये युद्ध करना या न करना इनमें कौन-सा श्रेष्ठ है? यह हम नहीं जानते’ इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि हमारे लिये क्या करना श्रेष्ठ है-युद्ध करना या युद्ध का त्याग करना-इस बात का भी हम निर्णय नहीं कर सकते; क्योंकि युद्ध करना तो क्षत्रिय का धर्म माना गया है और उसके फलस्वरूप होने वाले कुल नाश को महान् दोष भी बतलाया गया है।

प्रश्न-‘हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे’ इस वाक्य-का क्या भाव है?

उत्तर-इस वाक्य से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि यदि एक पक्ष में हम यही मान लें कि युद्ध करना ही श्रेष्ठ है, तो फिर इस बात का भी पता नहीं कि जीत हमारी होगी या उनकी।

प्रश्न-‘जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र मुकाबले में खड़े हैं’ इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इस वाक्य से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि यदि हम यह भी मान लें कि जीत हमारी होगी, तो भी युद्ध करना श्रेष्ठ नहीं मालूम होता; क्योंकि जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही दुर्योधनादि हमारे भाई मरने के लिये हमारे सामने खड़े हैं। अतएव यदि हमारी जीत भी हुई तो इनको मारकर ही होगी,
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